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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-708 जैन- आचार मीमांसा-240 खाना। यह दोष चारित्र को जलाकर कोयले की तरह निस्तेज बना देता है, अतः अंगार कहलाता है। 4. धूम - नीरस आहार की निन्दा करते हुए खाना, 5. अकारण - आहार करने के छ: कारणों के सिवाय बलवृद्धि आदि के लिएए आहार करना। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ अनगार धर्मामृत में इन सैंतालीस दोषों में से छियालीस पिण्ड-दोषों का विवेचन किया गया है, जो निम्नानुसार हैं - 16 उदग्म-दोष, 16 उत्पादन-दोष, 10 शंकितादि दोष और 4 अंगारादि दोष। मुनि को अपने भोजन में स्वाद-लोलुपता न रखकर मात्र संयमपालन के लिए आहार आदि ग्रहण करना चाहिए। भोजन के संबंध में मुनि का आदर्श यह होना चाहिए कि जीने के लिए खाना है न कि खाने के लिए जीना है। वस्त्र-मर्यादा - दिगम्बर-परम्परा के अनुसार, मुनि का वस्त्ररहित अर्थात् अचेल रहना चाहिए। उसमें मुनि के लिए वस्त्रों का उपयोग सर्वथा निषिद्ध है, यद्यपि श्रमणी के लिए वस्त्र का विधान है। श्वेताम्बर-परम्परा में भी वस्त्ररहित जिनकल्पी-मुनियों का वर्णन है, लेकिन इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर-परम्परा के आचारांगसूत्र में मुनियों के लिए एक से तीन तक के वस्त्रों तक का विधान है। श्रमणी के लिए चार वस्त्रों तक का विधान है। बृहदकल्पसूत्र के अनुसार, मुनि के लिए पाँच प्रकार के वस्त्रों का उपयोग करना कल्प माना गया है - 1. जांगिक (ऊनादि के वस्त्र), 2. भांगिक (अलसी का वस्त्र), 3. सानक (सन का वस्त्र), 4. पोतक (कपास का वस्त्र), 5. तिरीटपट्टक (छाल का वस्त्र)। मुनि के लिए कृत्स्नं वस्त्र और अभिन्न वस्त्र का उपयोग वर्जित है। कृत्स्न वस्त्र का अर्थ है- रंगीन.एवं आकर्षक वस्त्र, अभिन्न वस्त्र का अर्थ है - अखण्ड या पूरा वस्त्र / अखण्ड वस्त्र का निषेध इसलिए किया गया है कि वस्त्र का विक्रय-मूल्य या साम्पत्तिक मूल्य न रहे। भिक्षु के लिए खरीदा गया, धोया गया आदि दोषों से युक्त वस्त्र ग्रहण करने का भी निषेध है। इसी प्रकार, बहुमूल्य वस्त्र भी मुनि के लिए निषिद्ध है। प्रसाधन के निमित्त वस्त्र का रंगना, धोना आदि भी मुनि के लिए वर्जित है।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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