SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-706 जैन- आचार मीमांसा-238, आहार संबंधी निम्न नियमों का पालन करना चाहिए - .. - आहार ग्रहण करने के छ: कारण - मुनि को छ: कारणों से आहार ग्रहण करना चाहिए - 1. वेदना, अर्थात् क्षुधा की शान्ति के लिए, 2. वैयावृत्य, अर्थात् आचार्यदि की सेवा के लिए, 3. ईर्यापद, अर्थात् मार्ग में गमनागमन की निर्दोष प्रवृत्ति के लिए, 4. संयम, अर्थात् मुनि धर्म की रक्षा के लिए, 5. प्राणप्रत्यय, अर्थात् स्वाध्यायादि के लिए। . आहार-त्याग के छ: कारण - छ: स्थितियों में मुनि के आहार ग्रहण करना वर्जित माना गया है- 1. आतंक, अर्थात भयंकर रोग उत्पन्न होने पर, 2. उपसर्ग, अर्थात् आकस्मिक संकट आने पर, 3. ब्रह्मचर्य, अर्थात् शील की रक्षा के लिए; 4. प्राणीदया, अर्थात् जीवों की रक्षा के लिए, 5. तप, अर्थात् तपस्या के लिए और 6. संलेखना, अर्थात् समाधिकरण के लिए। इस प्रकार, मुनि संयम के पालन के लिए ही आहार ग्रहण करता है और संयम के पालन के लिए ही आहार का त्याग करता है। आहार संबंधी दोष - जैन-आगमों में मुनि के आहार सम्बन्धी विभिन्न दोषों का विवेचन मिलता है। संक्षेप में वे दोष निम्न है - (अ) उद्गम के 16 दोष - 1. आधाकर्म - विशेष साधु के उद्देश्य से आहार बनाना, 2. औद्देशिक- सामान्य भिक्षुओं के उद्देश्य से आहार बनाना, 3. पूतिकर्म - शुद्ध आहार को अशुद्ध आहार से मिश्रित करना, 4. मिश्रजात - अपने लिए व साधु के लिए मिलाकर आहार बनाना, 5. स्थापना - साधु के लिए कोई खाद्य पदार्थ अलग रख देना, 6. प्राभृतिकासाधु को पास के ग्रामदि में आया जानकर विशिष्ट आहार बहराने के लिए जीमणवार आदि का दिन-पीछे कर देना, 7. प्रादुगष्करण - अन्धकारयुक्त स्थान में दीपक आदि का प्रकाश करके भोजन देना, 8. क्रीत - साधु के लिए खरीद कर लाना, 9. प्रामित्य-साधु के लिए उधार लाना, 10. परिवर्तित - साधु के लिए अट्टा-सट्टा करके लाना, 11. अभिहत - साधु के लिए दूर से लाकर देना, 12. उद्भिन्न - साधु के लिए लिप्स-पात्र का मुख खोलकर घृत आदि देना, 13. मालापहृत - ऊपर की मंजिल से या छींके वगैरह से सीढ़ी आदि से उतारकर देना, 14. आच्छेद्य - दुर्बल से छीनकर देना, 15. अनिसृष्ट - साझे को चीज दूसरों की आज्ञा के बिना
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy