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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-673 - जैन- आचार मीमांसा-205 आता, तब तक साधक अपने को सावद्य-क्रियाओ से भी पूर्णतया निवृत्त नही रख सकता, अतः समत्व की साधना ही श्रमण-जीवन का मूल आधार जैनधर्म में श्रमण-जीवन के लिए आवश्यक योग्यताएँ श्रमण का जीवन एक उच्चस्तरीय नैतिकता एवं आत्मसंयम का जीवन है। श्रमण-संस्था पवित्र बनी रहे, इसलिए श्रमण-संस्था में प्रविष्ट होने के लिए कुछ नियमों का होना आवश्यक माना गया है। सामान्यतया, जैन-विचारधारा श्रमण संस्था में प्रवेश के द्वारा बिना किसी वर्ण एवं जाती के भेद के सभी के लिए खुला रखती है। महावीर के समय में निम्नतम से निम्नतम जाति के लोगों को भी श्रमण-संस्था में प्रवेश दिया जाता था। यह बात उत्तराध्ययनसूत्र के हरिकेशीबल के अध्याय से स्पष्ट हो जाती है। यद्यपि प्राचीन काल में सभी जाति के लोगों को श्रमण-संस्था में प्रवेश दीया जाता था, किन्तु कुछ लोगों को श्रमण-संस्था में प्रवेश के लिए अयोग्य मान लिया था। निम्न व्यक्ति श्रमण-संस्था में प्रवेश के लिए अयोग्य माने गये थे- 1. आठ वर्ष से कम उम्र का बालक, 2. अति-वृद्ध, 3. नपुंसक, 4. क्लीव, 5. जड़ (मूर्ख), 6. असाध्य रोग से पीड़ित, 7. चोर, 8. राज-अपराधी, 9. उन्मत्त (पागल), 10 अंधा, 11. दास, 12 दुष्ट, 13. मूढ ज्ञानार्जन के अयोग्य, 14. ऋणी, 15. कैदी, 16. भयार्त्त, 17. अपहरण करके लाया गया, 18. जुग्डित-जाति, कर्म अथवा शरीर से दूषित, .19. गर्भवती स्त्री, 20. ऐसी स्त्री, जिसकी गोद में बच्चा दूध पीता हो। यद्यपि स्थानांगसूत्र में श्रमण-दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों में नपुंसक, असाध्यरोगी एवं भयार्त्त का ही उल्लेख है, तथापि टीकाकारों ने उपर्युक्त प्रकार के व्यक्तियों को श्रमण-दीक्षा के अयोग्य माना है। इतना ही नहीं, परवर्ती टीकाकारों ने उसमें जाति को भी आधार बनाने का प्रयास किया है। जुग्डित शब्द की व्याख्या में मातंग, मछुआ, बसोड़, दर्जी, रंगरेज आदि जातियों के लिए भी श्रमण-दीक्षा वर्जित बताई गई। यद्यपि कुछ परवर्ती आचार्यों ने इनमें से कुछ जातियों को श्रमण संस्था में प्रवेश देना स्वीकार कियां है और वर्तमान परम्परा में भी रंगरेज, दर्जी आदि जातियों के व्यक्तियों को श्रमण-संस्था में प्रवेश दिया जाता है, फिर भी यह सत्य है
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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