________________ जैन धर्म एवं दर्शन-664 जैन- आचार मीमांसा-196 13. दवाग्निदापनकर्म-जंगल में आग लगाने का व्यवसाय। . 14. सरहद-तडाग-शोषणकर्म-तालाब, झील और सरोवर आदि को सुखाना। 15..असती-जन पोषणताकर्म-व्यभिचार-वृत्ति के लिए वेश्या आदि को नियुक्त कर उनके द्वारा धनोपार्जन करवाना। उपलक्षण से दुष्कर्मों के द्वारा आजीविका का अर्जन करना भी इसी में सम्मिलित है। आधुनिक सन्दर्भ में उपर्युक्त निषिद्ध व्यवसायों की सूची में परिमार्जन की आवश्यकता प्रतीत होती है। आज व्यवसायों के ऐसे बहुत से रूप सामने आये हैं, जो अधिक अनैतिक और हिंसक हैं। अत: इस सन्दर्भ में पर्याप्त विचार-विमर्श करके निषिद्ध व्यवसायों की एक नवीन तालिका बनायी जानी चाहिए। 8. अनर्थ-दण्ड-विरमण व्रत:-मानव अपने जीवन में अनेक ऐसे पापकर्म करता है, जिनके द्वारा उसका अपना कोई हित साधन नहीं होता। इन निष्प्रयोजन किये जाने वाले पाप कर्मों से गृहस्थ उपासक को बचाना इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। निष्प्रयोजन हिंसा और असत्य-सम्भाषण की प्रवृत्तियाँ मनुष्य में सामान्य रूप से पायी जाती हैं। जैसेस्नान में आवश्यकता से अधिक जलका अपव्यय करना, भोजन में जूठन डालना, सम्भाषण में अपशब्दों का प्रयोग करना, स्वास्थ्य के लिए हानिकर मादक द्रव्यों का सेवन करना, अश्लील और कामवर्द्धक साहित्य पढ़ना आदि / निरर्थक प्रवृत्तियाँ अविवेकी और अनुशासनहीन जीवन की द्योतक हैं। इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभचिन्तन, पापकर्मोपदेश, हिंसक उपकरणों के दान तथा प्रमादाचरण से बचे। . इस व्रत के निम्नलिखित पाँच अतिचार माने गये हैं - 1. कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएँ करना। 2. हाथ, मुहँ, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। 3. अधिक वाचाल होना या निरर्थक बातें करना। अनावश्यक रूप से हिंसा के साधनों का संग्रह करना और उन्हें दूसरों को देना 5. आवश्यकता से अधिक उपभोग सामग्री का संचय करना। यदि हम उपर्युक्त व्रत और उसके दोषों के सन्दर्भ में विचार करें तो वर्तमान युग में इसकी सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। मानव-समाज में आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियाँ विद्यमान हैं और एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक है।