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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-662 जैन - आचार मीमांसा -194 समाज में गरीब और अमीर की खाई और गहरी होगी और वर्ग संघर्ष अपरिहार्य हो जावेगा। परिग्रह परिमाणव्रत या इच्छा परिमाणव्रत इसी संग्रह वृत्ति को नियंत्रित करता है और आर्थिक वैषम्य का समाधान प्रस्तुत करता है / यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में कोई सीमा रेखा नियत नहीं की गई हैं, उसे व्यक्ति के स्वविवेक पर छोड़ दिया गया था, किन्तु आधुनिक संदर्भ में हमें व्यक्ति की आवश्यकता और राष्ट्र की सम्पन्नता के आधार पर सम्पत्ति या परिग्रह की कोई अधिकतम सीमा निर्धारित करनी होगी, यही एक ऐसा उपाय है जिससे गरीब और अमीर के बीच की खाइ को.फाटा जा सकता है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्तिऔर अपरिग्रह के आदर्श से आर्थिक प्रगति प्रभावित होगी। जैन धर्म अर्जन का उसी स्थिति में विरोधी है, जबकि उसके साथ हिंसा और शोषण की बुराइयाँ जुड़ती हैं। हमारा आदर्श है - सौ हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बाँट दो। गृहस्थ अर्थोपार्जन करे, किन्तु वह न तो संग्रह के लिए हो और और न स्वयं के भोग के लिये, अपितु उसका उपयोग लोक-मंगल के लिये और दीनदुःखियों की सेवा में हो ; वर्तमान सन्दर्भ में इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है। यदि आज हम इसे स्वेच्छा से नही अपनाते हैं तो या तो शासन हमें इसके लिए बाध्य करेगा या फिर अभावग्रस्त वर्ग छीन लेगा, अतः हमें समय रहते सम्भल जाना चाहिये। 6. दिक् परिमाण व्रत :- तृष्णा असीम है, धन के लोभ में मनुष्य कहाँ-कहाँ नहीं भटका हैं। राज्य की तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया, तो धन-लोभ में व्यावसायिक उपनिवेश बने / अर्थ-लोलुपता तथा विषय-वासनाओं की पूर्ति के निमित्त आज भी व्यक्ति देश-विदेश में भटकता है। दिक् परिमाणव्रत मनुष्य की इंसीभटकन को नियन्त्रित करता है। गृहस्थ उपासक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने आर्थोपार्जन एवं विषय-भोग का क्षेत्र सीमित करे। इसीलिए उसे विविध दिशाओं में अपने आवागमन का क्षेत्र मार्यादित कर लेना होता है। यद्यपि वर्तमान संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इससे व्यक्ति का कार्यक्षेत्र सीमित हो जावेगा किन्तु जो व्यक्ति वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति से अवगत है, वे भली प्रकार जानते हैं कि आज कोई भी राष्ट्र विदेशी व्यक्ति को अपने यहाँ पैर जमाने देना नही चाहता है, दूसरे यदि हम अन्तर्राष्ट्रीय शोषण को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें इस बात से सहमत होना होगा कि व्यक्ति के धनोपार्जन की गतिविधि का क्षेत्र सीमित हो। अतः इस व्रत को अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता है। 7. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत :- व्यक्ति की भोगावृत्ति पर अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इस व्रत के अन्तर्गत श्रावक को अपने दैनिक जीवन के
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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