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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-658 जैन- आचार मीमांसा-190 सागारधर्म (ग्रहस्थ धर्म) का आचरण करें। पंड़ित आशाधरजी ने जिन गुणों का निर्देश दिया हैं उनमें से अधिकांश का निर्देश दोनों पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा किया जा चुका उपर्युक्त विवेचन से जो बात अधिक स्पष्ट होती हैं, वह यह हैं कि जैन आचारदर्शन मनुष्य जीवन के व्यावहारिक पक्ष की उपेक्षा करके नही चलता। जैनाचार्यों ने जीवन के व्यवहारिक पक्ष को गहराई से परखा हैं और इतना सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया है कि जिसके द्वारा व्यक्ति इस जगत में भी सफल सफल जीवन जी सकता हैं। यही नहीं, इन सद्गुणों में से अधिकांश का संबंध हमारे सामाजिक जीवन से हैं। वैयक्ति क जीवन में इनका विकास सामाजिक जीवन के मधुर संबंधों का सृजन करता हैं / ये वैयक्तिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। जैनाचार्यों के अनुसार ये आध्यात्मिक साधना के प्रवेशद्वार हैं। साधक इनका योग्य रीति से आचरण करने के बाद ही अणुव्रतों और महाव्रतों की साधना की दिशा में आगे बढ़ सकता हैं। ___ श्रावक के बारह (12) व्रतों की प्रासंगिकता जैनधर्म के श्रावक के निम्न बारह व्रत हैं - ,. (1). अहिंसा व्रत (2). सत्य व्रत (3). अचौर्य व्रत (4). स्व पत्नी संतोष व्रत (5). परिग्रह-परिमाण व्रत (6). दिक्-परिमाण व्रत (7). उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत (8). अनर्थदण्ड विरमण व (9). सामायिक व्रत (10). देशावकासिक व्रत (11). प्रोषधोपवास व्रत (12). अतिथि संविभाग व्रत (1). अहिंसा अणुव्रत :- गृहस्थोपासक संकल्पपूर्वक त्रसप्राणियों (चलने-फिरने वाले प्राणियों) की हिंसा का त्याग करता है। हिंसा के चार रूप हैं -1. आक्रामक (संकल्पी), 2. सुरक्षात्मक (विरोधजा), 3. औद्योगिक (उद्योगजा), 4. जीवन
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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