________________ जैन धर्म एवं दर्शन-650 जैन - आचार मीमांसा -182 विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार ही होता हैं। माया या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल-छद्म से युक्त बनाती है। इससे जीवन में दोहरापन आता है तथा अन्तर - बाह्य की एकरूपता समाप्त हो जाती है। फलतः मानसिक एवं सामाजिक शांति भंग होती है। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में अप्रमाणिकता फलित होती है। इस प्रकार हम कह सकते है कि श्रावक जीवन के कषाय चतुष्टय पर जो नियन्त्रण लगाने की बात कही गई है, वह सौहार्द एवं सामञ्जस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक शान्ति के लिये आवश्यक है। उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी नहीं जा सकती है। सप्त दुर्व्यसन - त्याग और उसकी प्रासंगिकता सप्त दुर्व्यसनों का त्याग गृहस्थ-धर्म की साधना का प्रथम चरण है। उनके त्याग को गृहस्थ-आचार के प्राथमिक नियम या मूल गुणों के रूप में स्वीकार किया गया है। वसुनन्दि-श्रावकचार में सप्त दुर्व्यसनों के त्याग का विधान किया है। आज भी दुर्व्यसन - त्याग, गृहस्थ-धर्म का प्राथमिक एवं अनिवार्य चरण माना जाता है। सप्त दुर्व्यसन निम्न हैं1. द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) 2. मांसाहार 3. मद्यपान 4. वेश्यागमन 5. परस्त्रीगमन 6. शिकार और 7. चौर्य-कर्म उपर्युक्त सप्त दुर्व्यसनों के सेवन से व्यक्ति का कितना चारित्रिक पतन होता है, इसे हर कोई जानता है। 1. द्यूत-क्रीड़ा :- वर्तमान युग में सट्टा, लाटरी आदि द्यूत-क्रीड़ा के विविध रूप प्रचलित हो गये हैं। इनके कारण अनेक परिवारों का जीवन संकट में पड़ जाता है अतः इस दुर्व्यसन के त्याग को कौन अप्रासंगिक कह सकता है। द्यूत-क्रीड़ा के त्याग की प्रासंगिकता के सम्बन्ध में कोई भी विवेकशील मनुष्य दो मत नहीं हो सकता। वस्तुतः वर्तमान युग में द्यूत-क्रीड़ा के जो विविध रूप हमारे सामने उभर कर आये हैं, उनका आधार केवल मनोरंजन नहीं हैं, अपितु उनके पीछे बिना किसी श्रम के आर्थोपार्जन की दुष्प्रवृत्ति है। सट्टे के व्यवसाय का प्रवेश जैन परिवारों में सर्वाधिक हुआ है। व्यक्ति इस प्रकार के धन्धे में अपने को नियोजित कर लेता है, तो श्रमपूर्वक अर्थोपार्जन के प्रति