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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-644 जैन- आचार मीमांसा-176 साधु - साध्वियों में शिथिलाचार हमारे प्रश्रय से बढ़ता हैं, यह सत्य है कि आज श्रावक, उनमें भी विशेष रूप से सम्पन्न श्रावकवर्गधर्म के नाम पर होने वाले बाह्याडम्बरों में अधिक रूचि ले लेता है - उनकी और उनके तथाकथित गुरूओं दोनों की रूचि धर्म के नाम पर अपने-अपने अहं का पोषण करने की है। वही साधु और वही श्रावक अधिक प्रतिष्ठित होता है, जो जितनी भीड़ इकट्ठी करता है / जो मजमा जमाने में जितना अधिक कुशल है, वह उतना ही अधिक प्रतिष्ठित है। इस सब में साधना- प्रिय साधु और श्रावक तो कहीं ओझल हो गये हैं। मैं यह सब जो कुछ कह रहा हूँ उसका कारण मुनिवर्ग के प्रति मेरी दुर्भावना नहीं है, अपितु उस यथार्थता को देखकर जो एक पीड़ा और व्यथा है, उसी का प्रकटन है। बाल्याकाल से लेकर जीवन की इस प्रौढावस्था तक मैंने संघ को अति निकट से देखा और परखा है एवं उस निकटता में मैंने जो कुछ अनुभव किया है, उसी यर्थाथता की बात कह रहा हूँ। हो सकता है कि इसके कुछ अपवाद हों, लेकिन सामान्य स्थिति यही है। जीवन का दोहरापन आज मुनिवर्ग का यथार्थ बनता जा रहा है, लेकिन इन सबके लिए मैं अपने को और अपने साथ ही गृहस्थ वर्ग को अधिक उत्तदायी मानता हूँ। . आज का गृहस्थ वर्ग न केवल अपने संरक्षक होने के दायित्व को भूला है, अपितु वह स्वयं अपनी अस्मिता को खोकर चारित्रिक पतन की ओर तेजी से गिरता जा रहा है। जब हम ही नहीं संभलेगे तो दूसरों को संभालने की बात क्या करेंगे। आज का गृहस्थ वर्ग जिस पर जैन धर्म और संस्कृति के संरक्षण का दायित्व है, उसका ज्ञान और आचरण दोनों ही दिशाओं में तेजी से पतन हुआ है। आज हमारी स्थिति यह है कि हमें न तो श्रमण जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का बोध है और न हम गृहस्थ जीवन के आवश्यक कर्तव्यों और दायित्वों के सन्दर्भ में ही कोई जानकारी रखते हैं। आगम ज्ञान तो बहुत दूर की बात है, हमें श्रावक-जीवन के सामान्य नियमों का भी बोध नहीं है। दूसरी ओर जिन सप्त व्यसनों से बचना श्रावक-जीवन की सर्वप्रथम भूमिका और आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और जिनके आधार पर वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक सुख-शान्ति निर्भर हैं, वे दुर्व्यसन तेजी से समाज में प्रविष्ट होते जा रहे हैं वे जितनी तेजी से और व्याप्त होते जा रहे हैं उतनी तेजी से वे हमारे धर्म और संस्कृति के अस्तित्व के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। जैन परिवारों में प्रविष्ट होता हुआ मद्यपान और सामिष आहार क्या हमारी सांस्कृतिक गरिमा के मूल पर ही प्रहार नहीं है ? किसी भी धर्म और संस्कृति का टिकाव और विकास उसके ज्ञान और चरित्र
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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