________________ जैन धर्म एवं दर्शन-639 जैन- आचार मीमांसा -171 नियोजित होते हैं, तो बन्धन या पतन के कारण बन जाते हैं। इन तीनों पक्षों की गलत दिशा में गति ही मिथ्यात्व और सही दिशा में गति सम्यक्त्व कही जाती है। वस्तुतः, सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए मिथ्यात्व (अविद्या) का विसर्जन आवश्यक है, क्योंकि मिथ्यात्व ही अनैतिकता या दुराचार का मूल है। मिथ्यात्व का आवरण हटने पर सम्यक्त्वरूपी सूर्य का प्रकाश होता है। सन्दर्भ ग्रन्थ1. तत्त्वार्थसूत्र 1/1, 2. उत्तराध्ययन 28/2, 3. (अ) अत्थि सद्धा ततो विरियं पञा च मम विज्जति। सुत्तनिपात 28/8, (ब) सव्वदा सील सम्पन्नो (इति भगवा) पञ्ञवा सुसमाहितो। अज्झत्तचिन्ती सतिमा ओघं तरति दुत्तरं ॥-सुत्तनिपात 9/22, 4. गीता 4/34, 4/39, 5. साइकोलाजी एन्ड मारल्स, पृ. 180, 6. उत्तराध्ययन, 28/30, 7. उत्तराध्ययन 28/30, 8. तत्त्वार्थसूत्र, 1/1, 9. दर्शनपाहुड, 2, 10. उत्तराध्ययन, 28/2, 11. नवतत्त्वप्रकरण, 1 उद्धृत-आत्मसाधना संग्रह, पृ. 151, 12. उत्तराध्ययन, 28/35, 13. वही, 23/25, 14. सुत्तनिपात, 10/2, 15. वही, 10/4, 16. वही, 10/6, 17. संयुत्तनिकाय, 1/1/59, 18. वही, 4/41/8, 19. अंगुत्तरनिकाय, 3/65, 20. गीता, 4/39, 21. गीता, 10/ 10, 22. वही, 10/21, 23. विसुद्धिमग्ग, 4/47, 24. उत्तराध्ययन, 28/35, 25. उत्तराध्ययन, 28/29, 26. भक्तपरिज्ञा, 65-66, 27. आचारांगनियुक्ति, 221, 28. संयुत्तनिकाय 1/1/33, 29. गीता, 17/28,30. तैत्तिरीय-उपनिषद् शिक्षावल्ली, 31. दशवैकालिक 4/12, 32. उत्तराध्ययन 28/30, 33. व्यवहारभाष्य, 7/217, 34. समयसारटीका, 153, 35. गीता (शा.), अ. 5 पीठिका, 36. समयसारटीका, 155, 37. समयसार, 10, 38. समयसारटीका, 151, 39. प्रवचनसार, चारित्राधिकार, 3, 40. उत्तराध्ययन, 6/9-10, 41. सूत्रकृतांग 2/1/7, 42. उत्तराध्ययन, 6/11, 43. आवश्यकनियुक्ति, 95-97, 44. वही, 1151-54, 45. वही, 100, 46. वही 101-102, 47. भगवतीसूत्र 8/10/41, 48. नृसिंहपुराण, 61/9/11, 49. उद्धृत दी क्वेस्ट आफ्टर परफेक्शन, पृ. 63, 50.जातक, 5/373/127, 51. दी सेन्ट्रल फिलासफी आफ बुद्धिज्म, पृ. 30-31, 52. थेरगाथा, 1/70, 53. दीघनिकाय, 1/4/4, 54. मज्झिमनिकाय, 2/3/5, 55. अंगुत्तरनिकाय तीसरा निपात, पृ. 104, 56. समयसार, 277, 57. योगशास्त्र, 4/1