________________ जैन धर्म एवं दर्शन-628 जैन - आचार मीमांसा -160 कहते हैं, “निर्वाण की ओर ले जाने वाले अर्हतों के धर्म में श्रद्धा रखने वाला अप्रमत्त और विचक्षण पुरुष प्रज्ञा प्राप्त करता है।"16 'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' और 'सद्दहानो लभते पञ' का शब्द-साम्य दोनों आचार-दर्शनों में निकटता देखने वाले विद्वानों के लिए विशेष रूप से द्रष्टव्य है। लेकिन, यदि हम श्रद्धा को आस्था के अर्थ में ग्रहण करते हैं, तो बुद्ध की दृष्टि में प्रज्ञा प्रथम है और श्रद्धा द्वितीय स्थान पर / संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते है कि श्रद्धा पुरुष की साथी है, प्रज्ञा उस पर नियन्त्रण करती है। इस प्रकार, श्रद्धा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है। बुद्ध कहते हैं, श्रद्धा से ज्ञान बड़ा है। इस प्रकार, बुद्ध की दृष्टि में ज्ञान का महत्व अधिक सिद्ध होता है / यद्यपि बुद्ध श्रद्धा के महत्व को और ज्ञान-प्राप्ति के लिए उसकी आवश्यकता को स्वीकार करते हैं, तथापि जहाँ श्रद्धा और ज्ञान में किसी की श्रेष्ठता का प्रश्न आता है, वे ज्ञान(प्रज्ञा) की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हैं। बौद्धसाहित्य में बहुचर्चित कालामसुत्त भी इसका प्रमाण है। कालामों को उपदेश देते हुए बुद्ध स्वविवेक को महत्वपूर्ण स्थान देते हैं। वे कहते हैं, हे कालामों! तुम किसी बात को इसलिए स्वीकार मत करो कि यह बात अनुश्रुत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह बात परम्परागत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह बात इसी प्रकार कही गई है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म-ग्रंथ (पिटक) के अनुकूल है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह तर्क-सम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह न्याय (शास्त्र) सम्मत है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि इसका आकार-प्रकार (कथन का ढंग) सुन्दर है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि यह हमारे मत के अनुकूल है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, केवल इसलिए मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है। हे कालामों! (यदि) तुम जब आत्मानुभव से अपने-आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निंदित हैं, इन बातों के अनुसार चलने से अहित होता है, दुःख होता है - तो हे कालामों ! तुम उन बातों को छोड़ दो। बुद्ध का उपर्युक्त कथन श्रद्धा के ऊपर मानवीय-विवेक की श्रेष्ठता का प्रतिपादक है। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्ध मानवीय-प्रज्ञा को श्रद्धा से पूर्णतया निर्मुक्त कर देते हैं। बुद्ध की दृष्टि में ज्ञानविहीन श्रद्धा मनुष्य के स्वविवेकरूपी चक्षु को समाप्त कर उसे अन्धा बना देती है और श्रद्धा-विहीन ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के