________________ जैन धर्म एवं दर्शन-611 जैन- आचार मीमांसा-143 अनुभवशक्ति. का अवरुद्ध हो जाना। 3) अवधिदर्शनावरण- सीमित अतीन्द्रिय दर्शन की उपलब्धि का नहीं होना। 4) केवल दर्शनावरण- परिपूर्ण दर्शन की उपलब्धि का नहीं होना। 5) निद्रा- सामान्य निद्रा। निद्रानिद्रा- गहरी निद्रा। .प्रचला-बैठे-बैठे आ जाने वाली निद्रा। 8) प्रचला-प्रचला- चलते-फिरते भी आ जाने वाली निद्रा। 9) स्त्यानगृद्धि- जिस निद्रा में प्राणी बड़े-बड़े बल-साध्य कार्य कर डालता है। ____ अन्तिम दो अवस्थाएँ आधुनिक मनोविज्ञान के द्विविध व्यक्तित्त्व के समान मानी जा सकती हैं। उपर्युक्त पाँच प्रकार की निद्राओं के कारण व्यक्ति की सहज अनुभूति की क्षमता में अवरोध उत्पन्न हो जाता है। 3. वेदनीय कर्म . . जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं- 1. सातावेदनीय और 2. असातावेदनीय / सुख रूप संवेदना का कारण सातावेदनीय और दुःख रूप संवेदना का कारण असातावेदनीय कर्म कहलाता है। - सातावेदनीय-कर्म के कारण- दस प्रकार का शुभाचरण करने वाला व्यक्ति सुखद-संवेदना रूप सातावेदनीय-कर्म का बन्ध करता है- (1) पृथ्वी, पानी आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। (2) वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना। (3) द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों पर दया करना। (4) पंचेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर अनुकम्पा करना। (5) किसी को भी किसी प्रकार से दुःख न देना। (6) किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो- ऐसा कार्य न करना। (7) किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनाना। (8) किसी भी प्राणी को रुदन नहीं कराना। (7) किसी भी प्राणी को नहीं मारना और (10) किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना। कर्मग्रन्थों में सातावेदनीय कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, व्रतपालन, योग-साधना, कषायविजय, दान और दृढ़ श्रद्धा माना