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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-595 जैन - आचार मीमांसा -127 वर्गों में विभक्त किया गया है। तुलनात्मक दृष्टि से इन्हें निम्न तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है:कर्म जैन बौद्ध गीता पाश्चात्य 1. शुद्ध ईर्यापथिक अव्यक्तकर्म अकर्म अनैतिक कर्म 2. शुभ पुण्यकर्म कुशल(शुक्ल) कर्म कर्म नैतिक कर्म 3. अशुभ पापकर्म अकुशल (कृष्ण) कर्म विकर्म अनैतिक कर्म जैन-दर्शन में कर्म के बन्धक होने के आधार पर मुख्य रूप से दो विभाग किये गये हैं- 1. ईर्यापथिक और 2. साम्परायिक। इनमें साम्परायिक कर्म को पुनः दो विभागों में विभाजित किया गया है- (अ) अशुभ (पाप) और (ब) शुभ (पुण्य)। आगे हम इसी सन्दर्भ में चर्चा करेंगे / अशुभ या पापकर्म जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा दी है कि वैयक्तिक सन्दर्भ में जो आत्मा को बन्धन में डालें, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और आत्मशक्तियों का क्षय करे, वह पाप है। सामाजिक सन्दर्भ में जो परपीड़ा या दूसरों के दुःख का कारण है, वह पाप है। पाप या अकुशल कर्मों का वर्गीकरण - जैन दार्शनिकों के अनुसार पापकर्म 18 प्रकार के हैं- 1. प्राणातिपात (हिंसा), 2. मृषावाद (असत्य भाषण), 3. अदत्तादान (चौर्य-कर्म), 4. मैथुन (काम-विकार), 5. परिग्रह (ममत्व, मूर्जा, तृष्णा या संचयवृत्ति), 6. क्रोध (गुस्सा), 7. मान (अहंकार), 8. माया (कपट, छल, षड्यन्त्र और कूटनीति), 9. लोभ (संचय या संग्रह वृत्ति), 10. राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या आदि), 11. क्लेश (संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि), 12. अभ्याख्यान (दोषारोपण), 13. पिशुनता (चुगली), 14. परपरिवाद (परनिन्दा), 15. रति-अरति (हर्ष और शोक), 16. माया-मृषा (कपट सहित असत्य भाषण), 17. मिथ्यादर्शनशल्य (अयथार्थ जीवनदृष्टि)।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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