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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-592 जैन- आचार मीमांसा -124 पूर्णतया समाप्त हो जाता है, क्योंकि नियत भविष्य के बदलने की सामर्थ्य नैतिक जीवन में नहीं रह पाती है। दूसरे, यदि कर्मों को पूर्णतः अनियतविपाकी माना जाये, तो नैतिक व्यवस्था का ही कोई अर्थ नहीं रह जाता है। विपाक की पूर्णनियत्ता को मानने पर निर्धारणवाद और विपाक की पूर्ण अनियत्ता मानने पर अनिर्धारणवाद की सम्भावना होगी, लेकिन दोनों ही धारणाएँ ऐकान्तिक रूप में नैतिक जीवन की समुचित व्याख्या कर पाने में असमर्थ हैं, अतः कर्मविपाक की आंशिक नियत्ता ही एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है, जो नैतिक दर्शन की सम्यक् व्याख्या प्रस्तुत करता है। कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ जैन-दर्शन में कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं पर चिन्तन हुआ है और बताया गया है कि कर्म के बन्ध और विपाक (उदय) के बीच कौन-कौन सी अवस्थाएं घटित हो सकती हैं, पुनः, वे किस सीमा तक आत्मस्वातन्त्र्य को अभिव्यक्त करती हैं- इसकी चर्चा भी की गयी है। ये अवस्थाएँ निम्न 1. 2. बन्ध- कषाय एवं योग के फलस्वरूप कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मप्रदेशों से जो सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे बन्ध कहते हैं। संक्रमण- एक कर्म के अनेक अवान्तर भेद होते हैं। जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार, कर्म का एक भेद अपने सजातीय दूसरे भेद में बदल सकता है। अवान्तर कर्म-प्रकृतियों का यह अदल-बदल संक्रमण कहलाता है। संक्रमण में आत्मा पूर्वबद्ध कर्म प्रकृति का नवीन कर्मप्रकृति का बन्ध करते समय रूपान्तरण करता है। उदाहरण के रूप में, पूर्व बद्ध दुःखद संवेदन रूप असातावदनीय कर्म का नवीन सातावेदनीय कर्म का बन्ध करते समय सातावेदनीय कर्म के रूप में संक्रमण किया जा सकता है। संक्रमण की यह क्षमता आत्मा की पवित्रता के साथ ही बढ़ती जाती है। जो आत्मा जितनी पवित्र होती है, उसमें संक्रमण की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है। आत्मा में कर्मप्रकृतियों का एक दूसरे में कभी भी संक्रमण नहीं होता है, जैसे- ज्ञानावरण, दर्शनावरण में नहीं बदलता है। मात्र यही नहीं, दर्शनमोह कर्म, चारित्रमोह कर्म और आयुष्य कर्म की अवान्तर
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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