________________ जैन धर्म एवं दर्शन-572 जैन- आचार मीमांसा -104 का हित दूसरे के हित का बाधक हो सकता है। मात्र यही नहीं, हमारा एक हित हमारे ही दूसरे हित में बाधक हो सकता है। रसनेन्द्रिय या यौनवासना-संतुष्टि के शुभ और स्वास्थ्य-सम्बन्धी शुभ सहगामी हों, यह आवश्यक नहीं है। वस्तुतः, यह धारणा कि 'मनुष्य का या मनुष्यों का कोई सामान्य शुभ है', अपने-आप में यथार्थ है। जिसे हम सामान्य शुभ कहना चाहते हैं, वह विभिन्न शुभों का एक ऐसा स्कन्ध है, जिसमें न केवल भिन्न-भिन्न शुभों की पृथक्-पृथक् सत्ता है, अपितु वे एक-दूसरे के विरोध में भी खड़े हुए हैं। शुभ एक नहीं, अनेक है और उनमें पारस्परिक-विरोध भी है। क्या आत्मलाभ और आत्मत्याग के बीच कोई विरोध नहीं है? यदि पूर्णतावादी निम्न आत्मा के त्याग द्वारा उच्चात्मा के लाभ की बात कहते हैं, तो वे जीवन के इन दो पक्षों में विरोध स्वीकार करते हैं। पुनः निम्नात्मा भी हमारी आत्मा है और यदि हम उसके निषेध की बात स्वीकार करते हैं, तो हमें पूर्णतावाद के सिद्धान्त को छोड़कर प्रकारान्तर से बुद्धिवाद या वैराग्यवाद को ही स्वीकार करना होगा। इसी प्रकार, वैयक्तिक-आत्मा और सामाजिक-आत्मा का, अथवा स्वार्थ और परार्थ का अन्तर्विरोध भी समाप्त नहीं किया जा सकता है; इसीलिए मूल्यवाद किसी एक मूल्य की बात न कहकर 'मूल्यों' या 'मूल्य–विश्व की बात करता है। मूल्यों की विपुलता के इस सिद्धान्त में नैतिक-प्रतिमान की विविधता स्वभावतया ही होगी, क्योंकि प्रत्येक मूल्य का मूल्यांकन किसी दृष्टि-विशेष के आधार पर ही होगा। चूँकि मनुष्यों की जीवनदृष्टियाँ या मूल्यवृष्टियाँ विविध हैं, अतः उन पर आधारित नैतिक-प्रतिमान भी विविध ही होंगे। पुनः, मूल्यवाद में मूल्यों के तारतम्य को लेकर सदैव ही विवाद रहा है। एक दृष्टि से जो सर्वोच्च मूल्य लगता है, वही दूसरी दृष्टि से निम्न मूल्य हो सकता है। मनुष्य की जीवनदृष्टि या मूल्यदृष्टि का निर्माण भी स्वयं के संस्कारों एवं परिवेशजन्य तथ्यों से प्रभावित होता है; अतः मूल्यवाद नैतिक-प्रतिमान के सन्दर्भ में विविधता की धारणा को ही पुष्ट करता है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि नैतिक-प्रतिमान के प्रश्न पर न केवल विविध दृष्टिकोणों से विचार हुआ है, अपितु उसका प्रत्येक सिद्धान्त स्वयं भी इतने अन्तर्विरोधों से युक्त है कि वह एक सार्वभौम नैतिक-मापदण्ड