________________ जैन धर्म एवं दर्शन-473 जैन- आचार मीमांसा-5 असामनता को ही एकमात्र सत्य मानता है। (2) दूसरे, वह साध्य या आदर्श की अपेक्षा साधनों पर अधिक बल देता है, जबकि साधनों का मूल्य स्वयं उस साध्य पर आश्रित होता है, जिसके वे साधन हैं। (3) तीसरे, सापेक्षतावाद कर्म के बाह्य-स्वरूप को ही उसका सर्वस्व मान लेता है, उनके आन्तरिक पक्ष या कर्म के मानस-पक्ष की उपेक्षा करता है, जबकि कर्म की प्रेरक भावना का भी नैतिक-दृष्टि से समान मूल्य है। (4) चौथे, नैतिक-सापेक्षतावाद संकल्पस्वातन्त्रय के सिद्धान्त के विरोध में जाता है। यदि नीति के निर्धारक तत्त्व बाह्य हैं, तो फिर हमारी संकल्प की स्वतन्त्रता का कोई अधिक महत्व नहीं रहता है। सापेक्षतावाद के अनुसार नीति का नियामक तत्त्व देशकालगत परिस्थितियाँ एवं सामाजिक परिवेश हैं, वैयक्तिक-चेतना नहीं, किन्तु ऐसी स्थिति में संकल्पस्वातन्त्र्य का क्या अर्थ रह जाएगा, वह विचारणीय है। संकल्प को सापेक्ष मानने का अर्थ उसकी स्वतन्त्रता को सीमित करना है। (5) पाँचवें, नीति के सन्दर्भ में सापेक्षतावाद हमें अनिवार्यतः आत्मनिष्ठावाद की ओर ले जाता है, लेकिन आत्मनिष्ठवावाद में आकर नैतिक नियम अपना समस्त स्थायित्व और वस्तुगत आधार खो देते हैं। नैतिक-जीवन में समरूपता और वस्तुनिष्ठता का अभाव हो जाता है तथा नैतिकता का ढाँचा अस्तव्यस्त हो जाता है। (6) छठे, हम यह भी 'कह सकते हैं कि सापेक्षतावाद में नैतिकता का शरीर तो बचा रहता है, किन्तु प्राण चले जाते हैं, उसमें विषयसामाग्री तो रहती है, किन्तु आकार नहीं होता है; क्योंकि निरपेक्षता नैतिकता की आत्मा है। (7) सापेक्षतावाद में नैतिक-मानव की एकरूपता नहीं होती है, एक सार्वभौम मानदण्ड का अभाव होता है; अतः नैतिक-निर्णय देने में व्यक्ति को वैसी ही कठिनाई अनुभव होती है, जैसी उस ग्राहक को होती है, जिसे प्रत्येक दुकान पर भिन्न-भिन्न तौल-माप मिलते हों। पुनः, नैतिक-परिस्थिति स्वयं एक ऐसा जटिल तथ्य है, जिसमें जनसाधारण के लिए बिना किसी स्पष्ट सार्वभौम निर्देशक सिद्धान्त के यह तय कर पाना कठिन होता है कि उस परिस्थिति में क्या नैतिक है और क्या अनैतिक? अतः, नीति में किसी निरपेक्ष-तत्त्व की अवधारणा करना भी आवश्यक है। इस सन्दर्भ में जान डिवी का पूर्वोक्त दृष्टिकोण अधिक संगतिपूर्ण जान पड़ता है। वे परिस्थितियाँ,