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________________ आगम निबंधमाला है। एवं तीर्थंकरोक्त सर्वविरति एवं देशविरति धर्म की किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवहेलना करना है। ऐसे व्यक्ति अपने आप को भले वीतराग साधक समझने का संतोष करे, किंतु सच्चे अर्थों में वे सर्वज्ञोक्त मार्ग की सच्ची श्रद्धा से भी कोषों दूर हो जाते हैं / क्यों कि वे अपनी एकांतिक भाववादिता के आग्रह में तीर्थंकरों की और जिनवाणी रूप आगमों की भी अधिकतम उपेक्षा ही करते हैं तथा अपने ही विचारों मंतव्यों का सम्मान बढाते रहते हैं, आगम और आगम आज्ञा को भुलाते जाते हैं / अत: आत्महितैषी साधकों को ऐसे एकांत भावों की उच्चता के चक्कर में न आकर द्रव्य-भाव के सुमेल से युक्त जिनेश्वर कथित व्रत-नियम, अभिग्रह एवं महाव्रतों की साधना से दूर नहीं भागना चाहिये, उनका त्याग नहीं कर देना चाहिये, किंतु उनकी अभिवृद्धि करते हुए भावों को विशुद्ध विशुद्धतर बनाने का, हृदय को पवित्र पवित्रतम बनाने का एवं जीवन में करुणा, नम्रता, सरलता, गुणग्रहणता आदि गुणों की अभिवृद्धि करते हुए, शरीर के ममत्व को घटाते हुए, कष्ट सहिष्णुता को बढ़ाते हुए, कषाय मुक्त, सहज, सरल जीवन बनाने.का प्रयत्न करना चाहिये और आगम ज्ञान में अभिवृद्धि करके उसी के स्वाध्याय अनुप्रेक्षण में आत्मा को ए कमेक कर देना चाहिये / बहिर्मुखी चिंतनो को मोड़कर उन्हें अंतर्मुखी बनाते रहना चाहिये / इस प्रकार द्रव्य और भाव के सुमेल से युक्त जिनाज्ञामय साधना ही सच्चे अर्थों में मोक्षदायक बन सकती है। संसार में अनेक बुद्धि कौशल वाले मानव एकांत मार्ग बताते रहते हैं / पुण्यवान साधकों को अनेकांतिक सर्वज्ञोक्त मार्ग में स्थिरता के साथ गतिमान रहना चाहिये। निबंध-२४ सचित्त और सचित संयुक्त खाद्य विवेक किसी भी पदार्थ को जैसे कि- शक्कर मिष्टान्न आदि को संदेह रहित होकर विश्वास से लेने पर उसमें कीडियाँ हो सकती हैं / अन्य पदार्थों में कुंथुए, अनाज के जीव, लट आदि भी हो सकते हैं, ये त्रस जीव बिना ध्यान से पात्र में खाद्य पदार्थ के साथ आ सकते हैं।
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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