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________________ आगम निबंधमाला जो साधक सामाजिकता, व्यवहारिकता, जनसंपर्क, जनकल्याण और धर्मप्रभावना के मुख्य लक्ष्य में प्रवर्तित हैं, उन्हें अपने समाज के समस्त साधुओं के साथ औदार्यपूर्ण व्यवहार रखकर समाज में प्रेम और एकता सहृदयता के आदर्श को उपस्थित करते हुए जीवन जीना चाहिये / जिससे कि चतुर्विध संघ एवं जिनशासन के अंग रूप साधु साध्वी अथवा श्रावक श्राविकाओं में रागद्वेष, निंदा-विकथा के माध्यम से कर्मबंध की वृद्धि न होकर शांति, प्रेम, प्रमोद भावों की वृद्धि हो सके / शांति और समभावों की वृद्धि ही समस्त साधनाओं का सच्चा फल है, सच्चा परिणाम है, सच्ची सफलता है / साधनाओं के साथ श्रावक या साधु के जीवन में यदि अशांतभाव, वैमनस्य, निंदा, घृणा, छलप्रपंच, स्व उत्कर्ष, पर दोष प्रचार आदि प्रवृत्तियाँ या भावनाएँ पैदा होती है या घर कर जाती है, तो वह धर्म साधना. का सच्चा फल नहीं है। ऐसे कर्तव्यों से आत्मा का पतन ही अधिक होता है / तप संयम साधना कितनी भी विशिष्ट हो, उक्त अवगुणों से उसका परिणाम शून्य में चला जाता है, 'कात्या पीण्या भया कपास' की उक्ति चरितार्थ हो जाती है / अथवा 'अंधा पीसे कुत्ता खाय' यह उक्ति चरितार्थ होती है / तात्पर्य यह है कि आगम निर्दिष्ट तप, नियम एवं विशिष्ट अभिग्रहों के पालन की क्षमता बढाकर यथासमय यथायोग्य आत्मविकास करते रहना चाहिये, किंतु भावों मे पवित्रता रखना आवश्यक समझना चाहिये / भावों में कलुषता किसी भी रूप में किंचित् भी प्रविष्ट नहीं करनी चाहिये / इस बात की सतत सावधानी रखकर आत्मा को सुरक्षित रखना अत्यंत जरूरी समझना चाहिये / ऐसा करने से ही साधना प्राणयुक्त रह सकेगी अन्यथा निष्प्राण साधना कहलायेगी। जिस प्रकार निष्प्राण शरीर कितना भी सुंदर सुडोल हो, आसपास के वातावरण को दूषित करने वाला ही होता है / ठीक वैसे ही निष्प्राण साधना अर्थात् कलुषित चित्त युक्त साधना का साधक भी आस-पास के सामाजिक वातावरण को दूषित कर उभय का अहित अधिक करता है। ___ अत: आगमों के अनेकांतिक आशयों को हृदयंगम कर स्वयं क जीवन को और समाज के वातावरण को सुवासित रखना चाहिये /
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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