SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला / प्रश्न- लोक-अलोक का विस्तार असत् कल्पना से किस प्रकार समझा जा सकता है ? उत्तर- लोक विस्तार क लिये असत् कल्पना से इस प्रकार समझाया गया है- चार दिशाकुमारी देवियाँ जंबूद्वीप की जगती पर चारों दिशाओं में खड़ी होकर बलिपिंड को भूमि पर फेंके / उस समय मेरुपर्वत के शिखर पर खडे 6 देवों में से प्रत्येक देव उन चारों बलिपिंडों को भूमि पर गिरने से पहले ग्रहण कर सके, इतनी तीव्र गति वाले हो ऐसे वे देव मेरु से छहों दिशाओं में चलना प्रारंभ करे / उसके बाद एक व्यक्ति की 100-100 वर्ष की सात पीढी खतम हो जाय तब तक वे चले तो भी लोक का अंत नहीं आता है / फिर भी ज्यादा क्षेत्र पार किया है कम क्षेत्र रहा है / गये हुए से नहीं गया क्षेत्र असंख्यातवाँ भाग है, नहीं गये से गया क्षेत्र असंख्यगुणा है / इस उपमा से लोक का विस्तार असंख्य योजन समझना। . अलोक विस्तार- उपर के दृष्टांत के समान ही इसे भी समझना। विशेष यह है इसमें आठ देवियाँ आठ दिशा से बलिपिंड फेंके। उसे ग्रहण कर सके वैसे 10 देव दस दिशा में चलने का कहा गया है। इसमें गये क्षेत्र से नहीं गया क्षेत्र अनंतगुणा बाकी रहता है / निबंध-१३० दसवाँ, ग्यारहवाँ पौषध : शख-पुष्कली श्रावस्ती नगरी में शंख प्रमुख अनेक श्रावक रहते थे / जो जीवाजीव आदि तत्त्वों के जाणकार थे इत्यादि श्रावक के आगम वर्णित गुणों से संपन्न, 12 व्रतधारी, महीने में 6 प्रतिपूर्ण पौषध करने वाले थे / एक बार भगवान महावीर स्वामी उस नगरी में पधारे / शंख आदि श्रावक मिलकर पैदल ही भगवान की सेवा में पहुँचे / उपदेश सुना / घर लौटते समय शंख श्रावक ने प्रस्ताव रखा कि आज हम खाते-पीते सामुहिक पक्खी पौषध करें / तब पुष्कली आदि अन्य श्रावकों ने उनका कथन स्वीकार किया। सभी अपने अपने घर की दिशाओं में चले / स्थान एवं भोजन तैयार करवाने की जिम्मेदारी का निर्णय भी हुआ ही होगा। इसका कथन मूलपाठ में | 240
SR No.004414
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy