________________ आगम निबंधमाला खोटी-मिथ्या मान्यता रखता है, अत: दाता भी अशुद्ध है / तब वस्तु सदोष निर्दोष कोई भी हो उसका महत्त्व नहीं रह जाता है / इन तीनों प्रकार के दान में पुण्यबंध तो सर्वत्र(तीनों में) होता ही है क्यों कि भावना में उदारता एवं अनुकंपा होती है, लेने वाले को सुख पहुँचता है, अध्यवसाय दाता के शुभ होते हैं / तथापि प्रस्तुत सूत्र में तो पाप और निर्जरा की प्रमुखता से ही प्रश्न और उत्तर है। इसीलिये एकांत पाप या एकांत निर्जरा शब्दप्रयोग किया गया है अर्थात् इन दो में से एक का पूर्ण निषेध दिखाने के लिये प्रथम में एकांत निर्जरा और तीसरे में एकांत पाप कहा है / पुण्य का यहाँ प्रसंग ही नहीं लिया गया है / अत: पुण्य के निषेध का यहाँ आशय नहीं है, ऐसा समझना चाहिये / पुण्य के प्रसंग में तो शास्त्रकार ने 9 पुण्य बताये ही हैं उसमें 9 प्रकार का दान संसार के समस्त प्राणियों के लिये जिनशासन में श्रावकों के लिये खुला ही है / उसका निषेध किसी के लिये नहीं है / प्राचीन टीकाकार आचार्य ने भी यहाँ पर स्पष्ट किया है कि मोक्खत्थं जं पुण दाणं, तं पई एसो विहि समक्खाओ / . अणुकम्पादाणं पुण, 'जिणेहिं ण कयाइ पडिसिद्धं // अर्थ- सूत्रोक्त प्रश्नोत्तरमय विधान मोक्षार्थ दान की अपेक्षा से है परंतु अनुकम्पादान का जिनेश्वरों ने कहीं भी निषेध नहीं किया है। निबंध-१२७ सूर्य का प्रकाश तेज मंद क्यों? - सूर्य सदा एक सा चमकता है / सुबह शाम वह हमारे से अत्यंत दूर होने से लेश्या (तेज)प्रतिघात के कारण फीका सा दिखता है अर्थात् दूरी ज्यादा होने से उसका प्रकाश मंद मंदतम पहुँचता है। इसी कारण सूर्य सुबह और शाम फीका एवं नजदीक सा लगता है। दोपहर को हमारे भरत क्षेत्र के उपर सीध में आ जाने से लेश्याभिताप से प्रकाश तीव्र तीव्रतम हो जाने से सूर्य जाज्वल्यमान एवं दूर ऊँचा दिखता है। जिस तरह कोई सर्चलाइट दो किलोमीटर से दिखे तो कैसी / 231]