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________________ आगम निबंधमाला तीर्थंकर माता के गर्भ में आते हैं। नौ महीने साढ़े सात दिन से जन्म होता है / फ़िर यथा समय दीक्षा धारण करते हैं एवं केवलज्ञान होता है। चार तीर्थ की स्थापना करते है। धर्म प्रवर्तन करते हैं। तब 84 हजार वर्ष से विच्छेद हुआ जिन धर्म पुनः प्रारम्भ होता है। उपदेश श्रवण करके कई जीव श्रमण बनते हैं। कोई गृहस्थ धर्म अंगीकार करते हैं। शेष सम्पूर्ण वर्णन पूर्व वर्णित चौथे आरे के समान समझना चाहिये। यह आरा एक क्रोड़ा क्रोड़ सागर में 42000 वर्ष कम होता है। इसमें पुद्गल-स्वभाव, क्षेत्र स्वभाव में क्रमिक गुणवर्धन होता है। चौथा सुखमा दुःखमी आरा- इस आरे के तीन वर्ष साढ़े आठ महिना व्यतीत होने पर अंतिम 24 वें तीर्थंकर का जन्म होता है, उनकी उम्र 84 लाख पूर्व होती है, 83 लाख पूर्व गृहस्थ जीवन में रहते हैं, एक लाख पूर्व संयम पालन करते हैं। सम्पूर्ण वर्णन ऋषभदेव भगवान के समान जानना। किन्तु व्यवहारिक ज्ञान सिखाना, 72 कला सिखाना, आदि वर्णन यहाँ नहीं है। क्यों कि यहाँ कर्मभूमि काल तो पहले से ही है। अंतिम तीर्थंकर के मोक्ष जाने के बाद क्रमशः शीघ्र ही (5-25 वर्ष में)साधु-साध्वी श्रावक श्राविका एवं धर्म का और अग्नि का विच्छेद हो जाता है। 10 प्रकार के विशिष्ट वृक्ष उत्पन्न हो जाते हैं। मानव अपने कर्म, शिल्प, व्यापार आदि से मुक्त हो जाते हैं। यों क्रमिक युगल काल रूप में परिवर्तन होता जाता है। पल्योपम के आठवें भाग तक कुलकर व्यवस्था और मिश्रणकाल चलता है। फिर कुलकरों की आवश्यकता भी नहीं रहती है। धीरे-धीरे मिश्रण काल से परिवर्तन हो कर शुद्ध युगल काल हो जाता है। पूर्ण सुखमय शान्तिमय जीवन हो जाता है। शेष वर्णन अवसर्पिणी के तीसरे दूसरे और पहले आरे के समान ही उत्सर्पिणी के चौथे पाँचवें छठे आरे का है एवं कालमान भी उसी प्रकार है अर्थात् यह चौथा आरा दो क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम का होता है फिर पाँचवाँ आरा तीन क्रोड़ा सागरोपम का और छट्ठा आरा चार क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम का होता है। पाँचवें आरे का नाम सुखमी आरा एवं छटे आरे का नाम सुखमा सुखमी है। -- अढ़ाईद्वीप के कर्मभूमि क्षेत्रों में से आरों रूप उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल, 5 भरत और 5 एरवत इन दस क्षेत्रों में ही होता है, शेष 5 203
SR No.004413
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages256
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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