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________________ आगम निबंधमाला प्रवत्तियों में अव्यवस्था करता है / एवं स्वयं के स्वास्थ्य को भी अव्यवस्थित करता है, वह भी काथिक कहा जाता है / 9- मामक :- जो ग्राम एवं नगरों को, गहस्थ के घरों को, श्रावकों को या अन्य सचित्त-अचित्त पदार्थों को मेरा-मेरा कहता है या इनमें से किसी में भी ममत्व या स्वामित्व भाव रखता है अथवा अधिकार जमाता है तथा शिष्य शिष्याओं के प्रति अतिलोभ, आशक्ति भाव रखता है। अथवा स्वार्थ भाव से गुरुआमना आदि प्रवत्तियों के द्वारा लोगों को अपना बनाने का प्रयत्न करता रहता है वह मामक(मामगा) कहा जाता है। जन साधारण को जिन मार्ग में जोड़ने के लिए धर्म कथा या प्रेरणा आदि किसी भी प्रवत्ति के करने पर कोई स्वतः अनुरागी बन जाय और भिक्षु उसमें मेरा-मेरा की बुद्धि नहीं रखे तो उस प्रवत्ति से वह मामक नहीं कहा जाता / 10- संप्रसारिक :- जो गहस्थ के सांसारिक कार्यों में, संस्थाओं में भाग लेता है, गहस्थ को किसी भी कार्य के प्रारंभ हेतु शुभ मुहूर्त आदि का कथन करता है, व्यापार आदि प्रवत्तियों में उसे प्रत्यक्ष परोक्ष किसी भी प्रकार से मदद करता है। अन्य भी अनेक पुण्य के मिश्रपक्ष वाले अकल्पनीय कार्यों में भाग लेता है, वह संप्रसारिक(संपसारिया) कहा जाता है। 11- महादोषी :- इनके शिवाय जो रौद्र ध्यान में वर्तता है, क्रूर परिणामी होता है, दूसरों का अनिष्ट करता है, झूठे आक्षेप लगाता है, अनेक प्रकार से मायाचार करता है अथवा तो परस्त्री गमन करता है, बड़ी चोरियाँ करता है, धन संग्रह करता है, छ: काया के आरंभ वाले मंदिर-मकानों का निर्माण एवं संघ निकालना आदि करवाता है, अपनी प्रतिष्ठा के लिए संघ में भेद डाल कर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। ऐसा करने वाला सामान्य साधु हो या आचार्य आदि पदवीधर हो वह तो इन शिथिलाचार के 10 विभागों से भी बढ़ जाता है एवं साधु वेष में रहते हुए गहस्थ तुल्य एवं आत्मवंचक होता है और किन्हीकिन्ही प्रवत्तियों वाला तो महान धर्त एवं मक्कार भी होता है / 39
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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