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________________ आगम निबंधमाला शीघ्र ही स्थिति हट जाती है / प्रतिक्रमण के समय तो वह स्थिति सुधर कर साधक का हृदय सर्वथा शुद्ध पवित्र हो जाता है / इस साधक के कषाय के निमित्त से संयम मर्यादा का भंग हो जाय तो यह निर्ग्रन्थ अवस्था नहीं रहती है किन्तु पूर्व कथित प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ अवस्था में चला जाता है। किसी कषाय की अवस्था का यदि प्रतिक्रमण के समय तक भी अंत न हो जाय तो यह निर्ग्रन्थ अपनी निर्ग्रन्थ अवस्था से च्युत होकर संयम रहित या समकित रहित अवस्था को प्राप्त करता है / इसी प्रकार पूर्व कथित दो निर्ग्रन्थ भी प्रतिक्रमण के समय तक कषाय परिणामों का संशोधन नहीं करले तो फिर निर्ग्रन्थ विभाग में नहीं रहते है / कषाय की अल्पकालीनता में एवं प्रतिपूर्ण संयम मर्यादा पालन करते हुए इस कषाय कुशील निर्ग्रन्थ के कभी तीन अशुभ लेश्या के परिणाम आ जाय तो भी यह अपने निर्ग्रन्थ विभाग से तत्काल च्युत नहीं होता है किन्तु अशुभ लेश्याओं में अधिक समय रह जाय तो पूर्ण शुद्धाचारी यह निर्ग्रन्थ भी संयम अवस्था से च्युत हो जाता है / विवेक ज्ञान :- इसलिए निर्ग्रन्थ अवस्था से च्युत नहीं होने के लक्ष्य वाले साधकों को अपने किसी भी दोष में, किसी भी कषाय वत्ति में, किसी भी अशुभ लेश्या में अधिक समय स्थिर नहीं रहना चाहिए / सदा सतर्क सावधान जागरूक रहते हुए अविलम्ब इन अवस्थाओं से निवत्त होकर आत्म भाव में लीन बन जाना चाहिए / शिथिलाचारी के विभाग :१-पार्श्वस्थ :- जो ज्ञान दर्शन चरित्र की आराधना में पुरूषार्थ नहीं करता किन्तु उनमें शुस्त हो जाता है तथा रत्न-त्रयी के अतिचारों एवं अनाचारों का आचरण करके उनकी शुद्धि नहीं करता है वह पार्श्वस्थ (पासत्था) कहा जाता है। २-अवसन्न :- जो प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, विनय प्रतिपत्ति, आवश्यक आदि समाचारियों का एवं समितियों का पालन नहीं करता ह अथवा हीनाधिक या विपरीत आचरण करता है एवं शुद्धि नहीं करता है, 37 /
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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