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________________ आगम निबंधमाला व्यक्ति जलाकर भष्म कर दे या अन्यत्र सैकड़ो साधुओं को कोई घाणी में पील दे, कष्ण की राजधानी का एक व्यक्ति उसके भाई साधु के प्राण समाप्त कर दे तो भी धर्म जीवन में शंका नहीं की जाती थी तो आज बिना धणियों के भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप रूप प्राण की जैन धर्म की इस उन्नत दशा में धर्म जीवन में क्यों शंका की जाय? एकता होना अच्छा है सभी चाहते है फिर भी यह तीर्थंकरों के भी वश की बात नहीं हैं / एकता होना सोने में सुगंध की उक्ति को चरितार्थ करना है किन्तु न हो तो सोने को पीतल कहने का दुस्साहस तो नहीं किया जा सकता है / संपूर्ण देश में छुट्टी कराने में ही धर्म के जीवन को मानने की अपेक्षा तो संवत्सरी और महावीर जयंति को संपूर्ण जैन समाज अपना व्यापार कार्य न करे / जैन का बच्चा-बच्चा उस दिन सामयिक किये बिना रोटी न खाये या दया पौषध, पाप त्याग आदि धर्मानुष्ठान करे / कुव्यशन, मनोरंजन आदि का उस दिन पूर्ण त्याग रखें / तो उनके लिय तो छुट्टी हो ही जावेगी। धर्माराधना में धर्म के प्राण में सरकारी छुट्टी न होना कोई बाधक नहीं होगा। : तीर्थंकरों की उपस्थिति में देश भर में राजकीय छुट्टी होने का कोई प्रश्न ही नहीं था / फिर भी जैन धर्म की आराधना एवं प्रभावना होती ही थी। कहने का सार यह है कि किसी भी उन्नत गुण का महत्त्व अपनी सीमा तक ही समझना चाहिए एवं स्यादवादमय चिंतन से तोलना चाहिये एकातिक चिंतन और कसौटी करना लाभप्रद नहीं है / सांवत्सरिक एकता या अन्य एकता होना एक विशेष गण है फिर भी उसके अभाव में धर्म को एकांत निष्प्राण समझ लेना एकांत वाद है। सरकारी छुट्टी कराने में ही अपनी शान समझना आज एक शौक हो गया है, किन्तु सरकारी छुट्टी हो भी जाय और उस दिन जैनी लोग अपनी दुकानें बन्द नहीं करें, सात व्यसन त्याग नहीं करे, मौज शौक एसो आराम नहीं छोडे, तास-चौपड़ आदि खेले और आपसी मनमुटाव, राग-द्वेष, निंदा-विकथा, ईर्षा आदि नहीं छोडें, मन एवं आत्मा को सभी जीवों के प्रति, सभी धर्मियों के प्रति, सभी समुदायों-संप्रदायों के प्रति, सभी फिरकों के साधु-साध्वियों के प्रति, अपने ही भाइयों-गुरुभाइयों 207
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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