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________________ आगम निबंधमाला स्पष्ट है / व्यवहार शब्द का विस्तृत अर्थ करने पर यह भी फलित होता है कि संयमी जोवन से सम्बन्धित किसी भी व्यवहारिक विषय का निर्णय करना हो या कोई भी आगम से प्ररुपित तत्त्व के सम्बन्ध में उत्पन्न विवाद की स्थिति का निर्णय करना हो तो इसी क्रम से करना चाहिए अर्थात् यदि आगम व्यवहारी हो तो उनके निर्णय को स्वीकार करके विवाद को समाप्त कर देना चाहिए। . यदि आगम व्यवहारी न हो तो उपलब्ध श्रुत-आगम के आधार से जो निर्णय हो उसे स्वीकार करना चाहिए। सूत्र का प्रमाण उपलब्ध होने पर आज्ञा, धारणा या परम्परा को प्रमुख नहीं मानना चाहिए। क्यों कि आज्ञा, धारणा या परम्परा की अपेक्षा श्रुत व्यवहार प्रमुख है। वर्तमान में सर्वोपरो प्रमुख स्थान आगमों का है, उसके बाद व्याख्याओं एवं ग्रन्थों का स्थान हैतत्पश्चात् स्थविरों द्वारा धारित कंठस्थ धारणा या परम्परा का है। व्याख्याओ या ग्रन्थो में भी पूर्व-पूर्व के आचार्यो की रचना का प्रमुख स्थान है। अतः वर्तमान में सर्वप्रथम निर्णायक शास्त्र हैं उससे विपरीत अर्थ को कहने वाले व्याख्या और ग्रन्थ का महत्त्व नहीं होता है। उसी प्रकार शास्त्र प्रमाण के उपलब्ध होने पर धारणा या परम्परा का भी कोई महत्त्व नहीं है। इसलिए शास्त्र ग्रन्थ, धारणा और परम्परा को भी यथाक्रम विवेक पूर्वक प्रमुखता देकर किसी भी तत्त्व का निर्णय करना आराधना का हेतु है और किसी भी पक्षभाव के कारण व्युत्क्रम से निर्णय करना विराधना का हेतु है। अत: इस सूत्र के आशय को समझ कर निष्पक्ष भाव से आगम तत्वों का निर्णय करना चाहिए। भगवती सूत्र श.८,उद्दे०८ में तथा ठाणांग अ.५ उ.२ में भी यह सूत्र है। सारांश यह है कि प्रायश्चित्तो का या अन्य तत्त्वों का निर्णय इन पाँच व्यवहारों द्वारा क्रमपूर्वक करना चाहिए, व्युत्क्रम से नहीं अर्थात् किसी विषय में आगम पाठ के होते हुए भी धारणा या परम्परा को प्रमुखता देकर आग्रह करना सर्वथा अनुचित समझना चाहिए। ___एवं जिस विषय में प्राचीन ग्रन्थों या व्याख्या ग्रन्थों का यदि प्रमाण हो जो आगम से अविरुद्ध हो उसकी अपेक्षा धारणा या परम्परा या व्यक्तिगत गच्छों के निर्णय को प्रमुखता देना भी अनुचित ही समझना चाहिए / इसलिए जिस विषय में आगम प्रमाण या अन्य प्रबल प्रमाण उपलब्ध हो तो वहाँ परम्परा या धारणा का अथवा व्यक्तिगत निर्णयों का आग्रह नहीं करना चाहिए। किंतु संपूर्ण जैन समाज की एकता एवं सुव्यवस्था के लिए 185
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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