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________________ आगम निबंधमाला है। निशीथ उद्देशक 17 में अपने आचार्यत्व के सूचक लक्षणों को प्रकट करने वाले को प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है। ___ अतः संयमसाधना में लीन गुणसम्पन्न भिक्षु को यदि आचार्य या अन्य गच्छप्रमुख स्थविर गच्छभार संभालने के लिये निर्णय करें या आज्ञा दे तो अपनी क्षमता का एवं अवसर का विचार कर उसे स्वीकार करना चाहिए किन्तु स्वयं ही आचार्य पद प्राप्ति के लिए संकल्पबद्ध होना एवं न मिलने पर गण का त्याग कर देना आदि सर्वथा अनुचित्त होता है / इस प्रकार इस सूत्र में निर्दिष्ट सम्पूर्ण सूचनाओं को समझ कर सूत्र निर्दिष्ट विधि से पद प्रदान करना चाहिए और इससे विपरीत अन्य अयोग्य एवं अनुचित्त मार्ग स्वीकार नहीं करना चाहिए। इस सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि स्याद्वाद सिद्धान्त वाले वीतराग मार्ग में विनय-व्यवहार एवं आज्ञापालन में भी अनेकांतिक विधान है- अर्थात् विनय के नाम से केवल 'बाबावाक्यं प्रमाणं' का निर्देश नहीं है। इसी कारण आचार्य द्वारा निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट भिक्षु की योग्यता-अयोग्यता की विचारणा एवं नियुक्ति का अधिकार सूचित किया गया है। ऐसे आगम विधानों के होते हुए भी परम्परा के आग्रह से या 'बाबावाक्यं प्रमाणं' की उक्ति चरितार्थ करके आगम विपरीत प्रवृत्ति करना अथवा भद्रिक एवं अकुशल सर्व रत्नाधिक साधुओं को गच्छप्रमुख रूप में स्वीकार कर लेना गच्छ एवं जिनशासन के सर्वतोमुखी पतन का ही मार्ग है / अतः स्यद्वादमार्ग को प्राप्त करके आगम विपरीत परम्परा एवं निर्णय को प्रमुखता न देकर सदा जिनाज्ञा एवं शास्त्राज्ञा को ही प्रमुखता देनी चाहिए। निबंध- 31 दस प्रायश्चितों का स्वरुप एवं विश्लेषण (1) आलोचना के योग्य- क्षेत्रादि के कारण आपवादिक व्यवहार, शिष्टाचार प्रवृत्ति आदि की केवल आलोचना से शुद्धि होती है। 2. प्रतिक्रमण के योग्य- असावधानी से होने वाली अर्थतना की - -
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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