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________________ आगम निबंधमाला - आचार्य निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट किसी भी योग्य भिक्षु को अथवा कभी परिस्थितिवश अल्प योग्यता वाले भिक्षु को पद पर नियुक्त करने के बाद यदि यह अनुभव हो कि गच्छ की व्यवस्था अच्छी तरह नहीं चल रही है, साधुओं की संयम समाधि एवं बाह्य वातावरण क्षुब्ध हो रहा है, गच्छ में अन्य योग्य भिक्षु तैयार हो गये हैं तो गच्छ के स्थविर या प्रमुख साधु साध्वियाँ आदि मिलकर आचार्य को पद त्यागने के लिये निवेदन करके अन्य योग्य को पद पर नियुक्त कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में यदि वे पद त्यागना न चाहे या अन्य कोई साधु उनका पक्ष लेकर आग्रह करे तो वे सभी प्रायश्चित्त के पात्र होते है। व्यवहारसूत्र, उद्देशक-४, सूत्र-१३ / इस सूत्रोक्त आगम आज्ञा को भलीभाँति समझकर सरलता पूर्वक पद देना, लेना या छोड़ने के लिए निवेदन करना आदि प्रवृत्तियाँ करनी चाहिए तथा अन्य सभी साधु-साध्वियों को भी प्रमुख स्थविर संतों को सहयोग देना चाहिए। किन्तु अपने अपने विचारों की सिद्धि के लिये निंदा, द्वेष, कलह या संघभेद आदि अनुचित तरीकों से पद छुड़ाना या कपट-चालाकी से पद प्राप्त करने की कोशिश करना सर्वथा अनुचित समझना चाहिए। . गच्छ-भार संभालने वाले पूर्व के आचार्य का तथा गच्छ के अन्य प्रमुख स्थविर संतों का यह कर्तव्य है कि वे निष्पक्ष भाव से तथा विशाल दृष्टि से गच्छ एवं जिनशासन का हित सोचकर आगम निर्दिष्ट गुणों से सम्पन्न भिक्षु को ही पद पर नियुक्त करे। कई साधु स्वयं ही आचार्य बनने का संकल्प कर लेते हैं, वे ही कभी अशांत एवं क्लेश की स्थिति पैदा करते हैं या करवाते हैं। किन्तु मोक्ष की साधना के लिए संयमरत भिक्षु को जल-कमलवत् निर्लेप रहकर एकत्व आदि भावना में तल्लीन रहना चाहिए। किसी भी पद की चाहना करना या पद के लिए लालायित रहना भी संयम का दूषण है / इस चाहना में बाह्य ऋद्धि की इच्छा होने से इसका समावेश लोभ नामक पाप में होता है तथा उस इच्छा की पूर्ति में अनेक प्रकार के संयम विपरीत संकल्प एवं कुटिल नीति आदि का अवलंबन भी लिया जाता है, जिससे संयम की हानि एवं विराधना होती है। साथ ही मान कषाय की अत्यधिक पुष्टि होती |135 /
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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