________________ आगम निबंधमाला होने कारण श्रुत विस्मृत हो गया हो तो वह श्रुत सम्पन्न ही कहा जाता है * एवं गणधारण कर सकता है। भाष्यकार ने शिष्य सम्पदा वाले को द्रव्य पलिच्छन्न और श्रुत सम्पन्न को भाव पलिच्छन्न कहा है। उस चौभंगी युक्त विवेचन से भाव पलिच्छन्न को ही गणधारण करके विचरने योग्य कहा है। जिसका सारांश यह है कि जो आवश्यक श्रुत ज्ञान से सम्पन्न हो एवं बुद्धि सम्पन्न हो वह गण धारण करके विचरण कर सकता है। भाष्यकार ने इसी आगम विधान के तात्पर्यार्थ को बताते हुए यह भी स्पष्ट किया है कि- (1) विचरण करते हुए वह स्वयं के और अन्य भिक्षुओं के ज्ञान, दर्शन, चारित्र की शुद्ध आराधना करने करवाने में समर्थ हो। (2) जनसधारण को अपने ज्ञान तथा वाणी एवं व्यवहार से धर्म के सन्मुख कर सकता हो। (3) अन्य मत से भावित कोई भी व्यक्ति प्रश्नचर्चा करने के लिए आ जाय तो उसे यथायोग्य उत्तर देने में समर्थ हो, ऐसा भिक्षु गण प्रमुख के रूप में अर्थात् संघाटक प्रमुख होकर विचरण कर सकता है। . धर्म प्रभावना को लक्ष्य में रखकर विचरण करने वाले प्रमुख भिक्षु में ये भाष्योक्त गुण होना आवश्यक है किन्तु अभिग्रह प्रतिमाए एवं मौन साधना आदि केवल आत्मकल्याण के लक्ष्य से विचरण करने वाले को सूत्रोक्त श्रुतसंपन्न रूप पलिच्छन्न होना ही पर्याप्त है। भाष्योक्त गुण न हों तो भी वह प्रमुख होकर विचरण करता हुआ आत्म संयम साधना कर सकता है। उपर कहे प्रथम सूत्र का यह आशय है / द्वितीय सूत्र के अनुसार कोई भी श्रुत संपन्न योग्य भिक्षु स्वेच्छा से 'गण प्रमुख के रूप में विचरण करने के लिए नहीं जा सकता है किन्तु गच्छ के स्थविर भगवंत की अनुमति लेकर के ही गण धारण कर सकता है अर्थात् स्थविर भगवंत से कहे कि-"हे भगवन् ! मैं कुछ भिक्षुओं को लेकर विचरण करना चाहता हूँ।" तब स्थविर भगवंत उसकी योग्यता जानकर एवं उचित अवसर देखकर स्वीकृति दे तो गणधारण कर सकता है। यदि वे स्थविर किसी कारण से स्वीकृति न दे तो गण धारण नहीं करना चाहिए / एवं योग्य अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिए। सूत्र में स्थविर भगवंत से आज्ञा प्राप्त करने का विधान किया गया [121