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________________ बतलायी ही है, साथ ही यह भी बतलाया है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में ही होती है। यदि यह एकान्त से मान लिया जाये कि शूद्र नियम से नीचगोत्री ही होते हैं और तीन वर्ण के मनुष्य उच्चगोत्री ही होते हैं तो इससे शूद्र का केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में उपस्थित होना सिद्ध होता है। और जब ऐसा व्यक्ति केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में पहुँच सकता है तब वह समवसरण में या जिन-मन्दिर में नहीं जा सकता, यह कैसे माना जा सकता है। यह कहना कि जो म्लेच्छ देशव्रत के साथ क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पन्न करते हैं, उनको ध्यान में रखकर यह कथन किया है, ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि जिस प्रकार शूद्र मात्र नीचगोत्री मान लिये गये हैं, उसी प्रकार आचार्य वीरसेन ने अपनी धवला टीका में म्लेच्छों का भी नीचगोत्री होना लिखा है। आजीविका भी शूद्रों के समान म्लेच्छों की हीन ही मानी जायेगी। आचार्य जिनसेन ने महापुराण में इन्हें धर्म-कर्म से रहित बतलाया ही है। फिर क्या कारण है कि म्लेच्छों के लिए, जो आर्य भी नहीं माने गये हैं, धर्म-पालन की पूरी स्वतन्त्रता दी जाये और शूद्रों को उससे वञ्चित रखा जाये। शूद्रों में पर्याय सम्बन्धी अयोग्यता होती है, यह भी नहीं है; क्योंकि आगम साहित्य में धर्म को धारण करने के लिए जो योग्यता आवश्यक बतलायी है वह म्लेच्छों तथा इतर आर्यों के समान शूद्रों में भी पायी जाती है। अतएव यही मानना उचित है कि अन्य वर्णवालों के समान शूद्र भी पूरे धर्म को धारण करने के अधिकारी हैं। वे जिनमन्दिर में जाकर उसी प्रकार जिनदेव का दर्शन-पूजन कर सकते हैं जिस प्रकार अन्य वर्ण के मनुष्य। मगरमच्छ-जैसे हिंसाकर्म से अपनी आजीविका करनेवाले प्राणी काल-लब्धि आने पर सम्यग्दर्शन के अधिकारी तो हैं ही, विशुद्धि की छद्धि होने पर श्रावकधर्म के भी अधिकारी हैं। यह विचारणीय है कि मगरमच्छ और शूद्र दोनों में पर्याय की अपेक्षा भी कितना अन्तर है-एक
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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