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________________ समाजधर्म आत्मशुद्धिके उपायों पर विचार किया जाता है। उन दोनोंकी व्यवस्थाएं और उनके नियमोपनियम भिन्न भिन्न हैं और उनके उपदेष्टा अधिकारी व्यक्ति भी भिन्न भिन्न हैं / जहाँ समाजव्यवस्थाका उपदेशक सरागी और गृहस्थ होता है वहाँ मोक्षमार्गका उपदेशक वीतरागी होता है / जो अल्पज्ञ मुनि या गृहस्थ मोक्षमार्गका उपदेश देते हुए उपलब्ध होते हैं वे वास्तवमें उसके उपदेशक न होकर अनुवादमात्र उपस्थित करते हैं। जैनसाहित्यमें जहाँ भी समाजव्यवस्थाका उल्लेख आया है या उसके कुछ नियमोपनियमोंका विधान किया है वहाँ उसे युद्धादिके वर्णनके समान किस कालमें किस व्यक्तिने समाजके सङ्गठनके लिए क्या प्रयत्न किया इस घटनाका चित्रणमात्र जानना चाहिए। इससे अधिक धर्मकी दृष्टि से उसका वहाँ अन्य कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि उत्तरकालमें नीतिवाक्यामृत और त्रिवर्णाचार जैसा. जैनसाहित्य लिखा गया है और गृहस्थाचारके प्रतिपादक ग्रन्थोंमें समाजव्यवस्थाके अङ्गभूत खान-पान और विवाह आदिसम्बन्धी नियमोंका भी उल्लेख हुआ है पर इस प्रकारके साहित्य और उल्लेखोंका सर्वज्ञ वीतरागकी वाणीके साथ यत्किञ्चित् भी सम्बन्ध नहीं है यह स्पष्ट ही है / प्राचीन साहित्यके साथ आधुनिक साहित्यकी तुलना करके भी यह बात समझी जा सकती है। खान-पानके नियमोंसे हमारा तात्पर्य भक्ष्याभक्ष्यसम्बन्धी नियमोंसे नहीं है / भूक्ष्यांभक्ष्यका विचार कर अभक्ष्यभक्षण नहीं करना मूलतः जैनधर्मकी आत्मा है। यह तो जैन धार्मिक साहित्यकी प्रकृति है। ___अब वैदिक साहित्यकी प्रकृतिपर विचार कीजिए। मनुस्मृतिकी रचना वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, गृह्यसूत्र ओर श्रौतसूत्रके आधारसे हुई है। यह वैदिकधर्मका साङ्गोपाङ्ग प्रतिपादन करनेवाला धर्म ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भमें ही बतलाया है कि कुछ ऋषियोंने भगवान् मनुके पास जाकर पूछा कि हे भगवन् ! हमें चार वर्ण और उनके अवान्तर भेदोंके धर्मका उपदेश दीजिए, क्योंकि अपौरुषेय वेदविहित धर्मका उपदेश
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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