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________________ समवसृतिप्रवेशमीमांसा श्राह्मणक्षत्रियवैश्यानां शूद्रादिगृहसङ्गतः / अन्नपानं भवेन्मिश्रं यदि शुद्धिरियं भवेत् // 11 // जिन ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके भोजन-पानका शूद्रादिके घरके भोजन-पान संसर्गसे हो जाता है उन्हें इस प्रकार शुद्धि करनी चाहिए // 11 // मिथ्यागशु(ग्छूद) मिश्रान्नपानादि च भवेद्यदि / प्रायश्चित्तं भवेदत्राभिषेकत्रितयं घटः // 12 // जिनके भोजन-पानका मिथ्यादृष्टियोंके भोजन-पानके साथ मिश्रण हो जाता है उन्हें यह प्रायश्चित्त करना चाहिए // 12 // तद्गृहे भोजनं चाष्टौ उपवासाः प्रकीर्तिताः // 15 // जो पाँच प्रकारके कारु शूद्रोंके घर भोजन करते हैं उन्हें प्रायश्चित्तस्वरूप आठ उपवास करना चाहिए / / 15 / / . -प्रायश्चित्तग्रन्थ समवसृतिप्रवेशमीमांसा मिच्छाइहि अभव्वा तेसुमसण्णी ण होति कइयाइं / तह य अणज्मवसाया संदिद्धा विविह विवरीदा // 32 // समवसरणके इन बारह कोठोंमें मिथ्यादृष्टि, अभव्य तथा अनध्यवसायसे युक्त, सन्देह युक्त और विविध प्रकारको विपरीत वृत्तिवाले जीव कदापि नहीं होते // 32 // -त्रिलोकप्रज्ञधि
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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