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________________ आहारग्रहणमीमांसा 435 उसी प्रकार चाण्डाल आदिका स्पर्श होना, कलह होना, इष्ट पुरुषका मरण होना, प्रधान पुरुषका मरण होना, भय होना, लोकजुगुप्सा होना तथा साधर्मी पुरुषका संन्यासपूर्वक मरण होना...." इत्यादि अाहारत्यागके और भी कारण जानने चाहिए / / 5-56 // ""चण्डालादिस्पर्शश्चाण्डालश्वपचादिछुप्तिः / टीका / इस श्लोकमें 'चाण्डालादिस्पर्श' पदसे चाण्डाल और श्वपच श्रादिका स्पर्श लिया गया है // 5-6 ठोका // -अनगारधर्मामृत उत्तममज्झिमगेहे उत्तमगृहे उत्तुङ्गतोरणादिसहिते राजसदनादौ मध्यमगेहे नीचैगुहे तृणपर्णादिनिर्मिते निरपेक्षा उच्चैगृहं भिक्षार्थ गच्छामि नीचैह अहं न व्रजामि न प्रविशामीत्यपेक्षारहिता प्रव्रज्या भवति / दारिद्दे ईसरे णिरावेक्खा दारिद्रस्य निर्धनस्य गृहं न प्रविशामि ईश्वरस्य धनवतो गृहे प्रविशाम्यहं निवेशे इन्यपेक्षारहिता प्रव्रज्या भवति / सव्वत्थ गिहिदपिंडा सर्वत्र योग्यगृहे गृहीतपिण्डा स्वीकृताहारा प्रव्रज्या ईदशी भवति / किं तदयोग्यं गृहं यत्र भिक्षा न गृह्यते इत्याह उत्तुङ्ग तोरण श्रादिसे युक्त राजप्रासाद आदि उत्तम घर है। इसकी तथा मध्यम घर और तृण-पर्णादिसे निर्मित नीच घरकी अपेक्षासे रहित दीक्षा होती है / तात्पर्य यह है कि जिनदीक्षामें दीक्षित हुआ साधु ऐसा कभी विचार नहीं करता कि मैं भिक्षाके लिए उत्तम घरमें ही जाऊँगा, नीच घरमें नहीं जाऊँगा / इसी प्रकार दारिद्र और धनसम्पन्नताकी अपेक्षा से रहित दीक्षा होती है। मैं दरिद्रके घरमें प्रवेश नहीं करूँगा, केवल धनवान्के घर में प्रवेश करूँगा इस प्रकार की अपेक्षासे रहित दीक्षा होती है। किन्तु जिसमें सब योग्य घरोंमें आहारको स्वीकार किया जाता है दीक्षा इस प्रकारकी होती है / वह अयोग्य घर कौन-सा है जिस घरमें भिक्षा नहीं ग्रहण की जाती, आगे इसी बातको बतलाते हैं
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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