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________________ वर्ण, जाति और धर्म हुआ है, जो वेश्या है, जो आर्यिका या वैरागिनी है, जो शरीरका उबटन .. या तैलमर्दन कर रही है, जो अतिवाला है, जो अतिवृद्धा है, जो भोजन कर रही है, जो गर्भिणी है अर्थात् जिसे गर्भ धारण किये पाँच माहसे ऊपर हो गये हैं, जो अन्धी है, जो भीत आदिके अन्तरसे. खड़ी है, जो बैठी है, जो साधुसे ऊँचे स्थान पर खड़ी है, जो साधुसे नीचे स्थानपर खड़ी है, जो फूंक रही है, जो अग्निको जला रही है, जो लकड़ी आदिको सरका रही है, जो राख श्रादिसे अग्निको झक रही है, जो जलादिसे अग्निको बुझा रही है, जो वायुको रोक रही है ,या लकड़ी आदिको छोड़ रही है, : जो घर्षण कर रही है, जो गोबर आदिसे लीप रही है, जो मार्जन कर रही है तथा जो दूध पीते बालकको छुड़ाकर आई है। इसी प्रकार और भी कार्य करनेवाली स्त्री या पुरुष यदि दान करता है. तो दायक दोष होता है // 46-50 // उच्चारं पस्सवणं अभोजगिहपवेसणं तहा पडणं / ' उववेसणं सदंसं भूमीसंफास णिटवणं // 7 // आहारके समय अपने मल-मूत्रके निर्गत होनेपर, अभोज्यगृहमें प्रवेश होने पर, स्वयं गिर पड़ने, बैठ जाने या भूमिका स्पर्श होने पर और थूक खखार आदिके बाहर निकल पड़ने पर मुनि श्राहारका त्याग कर देते हैं // 76 // -मूलाचारपिण्डशुद्ध यधिकार अण्णादमणुण्णादं भिक्खं णिच्चुच्चमज्झिमकुलेसु / घरपंतिहि हिंति य मोणेण मुणी समादिति // 47 // नीच, उच्च और मध्यम कुलोंमें गृहोंकी पंक्तिके अनुसार चारिका करते हुए मुनि अज्ञात और अनुज्ञात भिक्षाको मौनपूर्वक स्वीकार करते हैं // 47 // -मलाचार अनगारसावनाधिकार
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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