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________________ 428 वर्ण, जाति और धर्म भोज्य और अभोज्यके भेदसे कारुशूद्र दो प्रकारके प्रसिद्ध हैं। उनमें से भोज्य शूद्रोंको ही सर्वदा क्षुल्लकवत देना चाहिए // 154 // . . . -प्रायश्चित्तंचूलिका पिण्डशुद्धरभावत्वान्मद्यमांसनिषेवनात् / सेवादिनीचवृत्तित्वात् शूद्राणां संस्कारो न हि // पौनपुनर्विवाहत्वात् पिण्डशुद्धरभावतः / ऋत्वादिसु क्रियाभावात् तेषु न मोक्षमार्गता // संस्कृते देह एवासौ दीक्षाविधिरभिस्मृतः / शौचाचारविधिप्राप्तो देहः संस्कर्तुमर्हति // विशिष्टान्वयजो शुद्धो जातिकुलविशुद्धिभाक् / न्यसतेऽसौ सुसंस्कारैस्ततो हि परमं तपः // शूद्रोंकी पिण्डशुद्धि नहीं देखी जाती, वे मद्य-मांसका सेवन करते हैं और सेवा आदि नीच वृत्तिसे अपनी आजीविका करते हैं, इसलिए उनका संस्कार नहीं होता। . शूद्रोंमें बार-बार पुनर्विवाह होता है, उनकी पिण्डशुद्धि नहीं होती तथा उनमें ऋतुधर्म आदिके समय क्रियाका अभाव है, इसलिए उनमें मोक्षमार्गता नहीं बनती। संस्कारसम्पन्न देहमें ही यह दीक्षाविधि कही गई है तथा शौचाचारविधिको प्राप्त हुआ देह हो संस्कारके योग्य है। जो विशिष्ट अन्वयमें उत्पन्न हुआ है, शुद्ध है तथा जाति और कुलके श्राश्रयसे विशुद्धियुक्त है वही सुसंस्कारोंका अधिकारी है और उसीसे परम तप होता है। -स्मृतिसार
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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