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________________ चरित्रग्रहणमीमांसा जिनेन्द्रदेवके इस शासनमें ऊँच और नीच सभी जन पाये जाते हैं, “क्योंकि जिस प्रकार एक खम्भेके आश्रयसे महल नहीं टिक सकता उसी प्रकार एक पुरुषके आश्रयसे जैन शासन भी नहीं टिक सकता। -यशस्तिलकचम्यू आश्वास 8 पृ० 407 दोबायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः / मनोवाकायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः // अद्रोहः सर्वसत्त्वेषु यज्ञो यस्य दिने दिने / स पुमान् दीक्षितामा स्यानत्वजादियमाशयः // दीक्षा ग्रहण करने योग्य तीन वर्ण होते हैं। तथा आहारके योग्य चार वर्ण हैं, क्योंकि सभी जन्तु मन, वचन और कायपूर्वक धर्ममें अधिकारी माने गये हैं। __ जिसका सब जीवोंमें द्रोहभाव नहीं है और जो प्रतिदिन जिनपूजा श्रादि यज्ञकर्ममें निरत है वह मनुष्य दीक्षाके योग्य है / किन्तु जो जातिमदसे लिप्त है वह दीक्षा योग्य नहीं है (?) / -यशस्तिलकचम्पू आश्वास 8 पृ० 413 यावजीवमिति त्यक्त्वा महापापानि शुद्धधीः / जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः स्यात्कृतोपनयो द्विजः // 2-16 // सम्यग्दर्शनसे निर्मल बुद्धिका धारी द्विज जीवन पर्यन्तके लिए महापापोंका त्यागकर उपनीतिसंस्कारपूर्वक जिनधर्मके सुननेका अधिकारी होता है // 2-16 // ' अथ शूद्रस्याप्याहारादिशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद्धर्मक्रियाकारित्वं यथो. चितमनुमन्यमानः प्राह
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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