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________________ 421 चरित्रग्रहणमीमांसा प्रतिहार्योंसे युक्त जो अरिहन्त अवस्था है वह इनके बहुत ही अयोग्य है, अर्थात् ऐसे वर्णवाले उस अवस्थाको कथमपि नहीं प्राप्त कर सकते, इसलिए यहाँपर उस अवस्थाका ग्रहण नहीं किया है। उदाहरणतक्षायस्कारं कुलालवरूढं रजकतन्तुवायम् / शंका-इन शब्दोंमें भी एकवद्भाव प्राप्त होता है, अतः ‘चण्डालमृतपाः' के स्थानमें 'चण्डालमृतपम्' होना चाहिए ? समाधान-नहीं, क्योंकि इन शब्दोंका 'दधि-पय' आदिमें अन्तर्भाव होकर द्वन्द्वसमास जानना चाहिए। शंका-सूत्रमें 'वर्णेन' पद क्यों दिया है ? समाधान–'मूकबधिराः' इत्यादि स्थलमें एकवद्भाव न हो इसके लिए 'वर्णेन' पद दिया है। -महावृत्ति पृ००८ वर्णेनाद्रूपायोग्यानाम् // 1 // 4 // 6 // जो वर्णसे निर्ग्रन्थ होनेके अयोग्य हैं उनके वाची शब्दोंका द्वन्द्व समासमें एकवद्भाव होता है। -शब्दार्णवचन्द्रिका वण्णेसु तोसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा / सुमुहो कुच्छारहिदो लिंगरगहणे हवदि जोग्गो॥३-२५ उद्धृत॥ ..........'यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि। . जो निरोग है, जो उम्रसे तपको सहन करनेमें समर्थ है, जो सौम्यमुख है और जो दुराचार आदि लोक अपवादसे रहित है ऐसा तीन वर्गों में से कोई एक वर्णका मनुष्य जिनदीक्षा लेनेके योग्य है / यथायोग्य सच्छूद्र आदि भी जिनदीक्षाके योग्य है। -प्रवचनसार अ० 3, गा० 25 जयसेनटीका
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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