________________ विवाहमीमांसा 403 युक्तितो वरणविधानमग्निदेवद्विजसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः // 3 // युक्तिसे जो वरणविधि होती है अर्थात् अग्नि, देव और द्विजकी साक्षीपूर्वक जो पाणिग्रहण होता है उसका नाम विवाह है // 3 // समविभवाभिजनयोरसमगोत्रयोश्च विवाहसम्बन्धः // 20 // जो समानविभववाले होकर कुलीन हों और दोनोंका अलग-अलग गोत्र हो उनमें विवाह सम्बन्ध होता है // 20 // विकृतप्रत्यूढापि पुनर्विवाहमहंतीति स्मृतिकाराः // 27 // आनुलोम्येन चतुनिद्विवर्णाः कन्याभाजनाः ब्राह्मणक्षत्रियविशः // 28 // विकृतप्रत्यूढा होने पर भी कन्या पुनर्विवाह कर सकती है ऐसा स्मृतिकारोंका कथन है // 27 // अनुलोम विधिसे चार वर्णकी कन्याको स्वीकार करनेवाले ब्राह्मण, तीन वर्णकी कन्याको स्वीकार करनेवाले क्षत्रिय और दो वर्णको कन्याको स्वीकार करनेवाले वैश्य होते हैं // 28 // -नीतिवाक्यामृत विवाहसमुद्देश तत्र परिगृहीताः सस्वामिकाः / अपरिगृहीता स्वैरिणी प्रोषितभर्तृका कुलाङ्गना वा अनाथा। जिसका स्वामी है उसे परिगृहीता कहते हैं और जो स्वैरिणी, पतित्यक्ता या अनाथ कुलाङ्गना है उसे अपरिगृहीता कहते हैं। . -सागारधर्मामृत अ० 4 श्लो० 52 टीका मैथुनं न कार्य न च कारणीयमिति व्रतं यदा गृहीतं भवति तदान्यविवाहकरणं मैथुनकरणमित्यर्थतः प्रतिसिद्धमेव च भवति / मैथुन न करना चाहिए और न कराना चाहिए ऐसा व्रत जब ग्रहण किया जाता है तब अन्यका विवाह करना मैथुन करना ही है, इसलिए वह निषिद्ध ही है। -सागारधर्मामृत अ• 4, श्लो० 58 टीका