________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा कृतकृत्यस्य तस्यान्तश्चिन्तयमुदपद्यत / . परार्थे सम्पदास्माकी सोपयोगा कथं भवेत् // 38-5 // शासनव्यवस्था सम्बन्धी सब कार्य कर चुकनेपर उनके चित्तमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दूसरोंके उपकारमें अपनी सम्पत्तिका किस प्रकार उपयोग करूँ // 38-5 / / महामहमहं कृत्वा जिनेन्द्रस्य महोदयम् / - प्रीणयामि जगद्विश्वं विष्वक विश्राणयन् धनम् // 38-6 // . मैं जिनेन्द्रदेवका जीवन निर्माणमें परम सहायक महामह यज्ञ करके धन वितरण करता हुआ समस्त विश्वको प्रसन्न करना चाहता हूँ // 38-6 // नानागारा वसून्यस्मत् प्रतिगृह्णन्ति निस्पहाः। सागारः कतमः पूज्यो धनधान्यसमृद्धिभिः // 38-7 // - परम निस्पृह मुनिजन तो हमारा धन स्वीकार करते नहीं। परन्तु गृहस्थोंमें वे कौन गृहस्थ हैं जो सब धान्य आदि समृद्धिके द्वारा आदरणीय हो सकते हैं // 38-7 // येऽणुव्रतधराधीरा धौरेया गृहमेधिनाम् / तर्पणीया हि तेऽस्माभिः ईप्सतैर्वसुवाहनैः // 38-8 // ____ जो अणुव्रतोंको धारण करनेवाले हैं, धोर हैं और गृहस्थोंमें मुख्य हैं वे ही हमारे द्वारा इच्छित धन और सवारी आदि देकर प्रसन्न करने योग्य हैं // 38-8 // इति निश्चित्य राजेन्द्रः सत्कर्तुमुचितानिमान् / . परीचिक्षिषुराह्वास्त तदा सर्वान् महीभुजः // 38-6 / / इस प्रकार निश्चय कर सत्कार करने योग्य व्यक्तियोंकी परीक्षा करने की इच्छासे भरत महाराजने इस समय सब राजाओंको आमन्त्रित किया ||38-6 //