________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा 385 राजा श्रेणिकके इस प्रकार पूछने पर कृपारूपी अङ्गनासे आश्लिष्ट चित्त होनेसे मात्सर्य रहित गौतम गणधर इस प्रकार कहने लगे // 86 // श्रेणिक श्रूयतामेषां यथा जातः समुद्भवः / विपरीतप्रवृत्तीनां मोहावष्टब्धचेतसाम् // 4-60 // साकेतनगरासन्ने प्रदेशे प्रथमो जिनः / आसांचक्रेऽन्यदा देवतिर्यग्मानववेष्टितः // 4-61 // ज्ञात्वा तं भरतस्तुष्टो ग्राहयित्वा सुसंस्कृतम् / अन्नं जगाम यत्यर्थ बहुभेदप्रकल्पितम् // 4-62 // प्रणम्य च जिनं भक्त्या समस्तांश्च दिगम्बरान् / भ्रमौ करद्वयं कृत्वा वाणीमेतां प्रभाषत // 4-13 // प्रसादं भगवन्तो मे कर्तुमर्हथ याचिताः / प्रतीच्छतं मया भिक्षां शोभनामुपपादिताम् // 4-64 // इत्युक्ते भगवानांह भरतेयं न कल्पते / साधूनामीदृशी भिक्षा यं तदुद्देशसंस्कृता // 4-15 // एते हि तृष्णया मुक्ता निर्जितेन्द्रियशत्रवः / विधायापि बहून्मासानुपवासं महागुणाः // 4-66 // भिक्षां परिग्रहे लब्धां निर्दोषां मौनमास्थिताः। भुञ्जन्ते प्राणभृत्यर्थ प्राणा धर्मस्य हेतवः // 4-67 // धर्म चरन्ति मोक्षार्थ यत्र पीडा न विद्यते / कथञ्चिदपि सत्त्वानां सर्वेषां सुखमिच्छताम् // 4-68 // ... हे श्रेणिक ! विपरीत प्रवृत्ति करनेवाले और मोहसे अाविष्ट चित्तवाले इनकी उत्पत्ति जिस प्रकार हुई कहता हूँ, सुनो // 60 / / किसी दिन देव, तिर्यञ्च और मनुष्योंसे वेष्टित प्रथम जिन ऋषभदेव अयोध्या नगरीके समीपवर्ती प्रदेशमें विराजमान थे / / 61 / उस समय इस वृत्तको जानकर भरत चक्रवर्ती सन्तुष्ट हो यतियोंके लिए उत्तम प्रकारसे तैयार किया गया 25 .