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________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा 383 उत्तम मन्त्रोंसे पवित्र जल और अग्निकी साक्षीमें जो पत्नियाँ प्राप्त होती हैं वे या शीघ्र मर जाती हैं या दूसरे लोग ले भागते हैं, उनकी कन्याएँ भी व्याधिसे जर्जर शरीर हो जाती हैं या अति शीघ्र विधवा हो जाती हैं // 38 // विपत्तिमृच्छन्ति च गर्भ एव केचित्प्रसूतावपि बालभावे / दारिद्रयमन्ये विकलेन्द्रियत्वं द्विजात्मजाश्चेदिह को विशेषः // 36 // उन ब्राह्मणोंके कितने ही बालक गर्भमें ही संकट ग्रस्त हो जाते हैं, कितने ही उत्पन्न होनेके बाद बाल्यकालमें ही रोगग्रस्त हो जाते हैं कितने ही दरिद्र हो जाते हैं और कितने ही विकलाङ्ग होते हैं, तब सोचिए कि अन्य जनोंसे ब्राह्मणोंमें क्या विशेषता रही // 36 // यथा नटो रङ्गमुपेत्य चित्रं वृत्तानुरूपानुपयाति वेषान् / जीवस्तथा संसृत्तिरङ्गमध्ये कर्मानुरूपानुपयाति भावान् // 40 // .. जिस प्रकार कोई नट रङ्गस्थलीको प्राप्त होकर नृत्यके अनुरूप नाना वेष धारण करता है उसी प्रकार यह जीव भी संसाररूपी रङ्गस्थलीमें कर्मों के अनुरूप नाना पर्यायोंको स्वीकार करता है // 40 // न ब्रह्मजातिस्त्विह काचिदस्ति न क्षत्रियो नापि च वैश्य-शूद्रे / ततस्तु कर्मानुवशाहितात्मा संसारचक्र परिबंभ्रमीति // 41 // इस लोकमें न कोई ब्राह्मण जाति है, न क्षत्रिय जाति है और न वैश्य या शूद्र जाति ही है, किन्तु यह जीव कोंके वश हुआ संसारचक्रमें परिभ्रमण करता है / / 41 // अपातकत्वाच्च शरीरदाहे देहं न हि ब्रह्म वदन्ति तज्ज्ञाः / ज्ञानं च न ब्रह्म यतो निकृष्टः शूद्रोऽपि वेदाध्ययनं करोति // 42 // शरीरके दाहमें कोई पातक न होनेसे ब्रह्मके जानकार पुरुष शरीरको ब्रह्म नहीं कहते / तथा ज्ञान भी ब्रह्म नहीं है, क्योंकि निकृष्ट शूद्र भी वेदका अध्ययन करता है // 42 / /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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