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________________ वर्णमीमांसा 375 शेषयोस्तु चतुर्थे स्याकाले तज्जातिसन्ततिः एवं वर्णविभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे // 74-465 // इस शरीर में वर्ण तथा प्राकृतिकी अपेक्षा कुछ भी भेद देखनेमें नहीं श्राता / और ब्राह्मणी आदिमें शूद्र के द्वारा गर्भधारण किया जाना देखा जाता है / / 74-461 / / तथा मनुष्योंमें गाय और अश्वके समान जातिकृत कुछ भी भेद नहीं है। यदि आकृतिमें भेद होता तो जातिकृत भेद माना जाता। परन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रमें श्राकृति भेद नहीं है, अतः उनमें जातिको कल्पना करना अन्यथा है // 74-462 // जिनके जातिनामकर्म और गोत्रकर्म शुक्लध्यानके कारण हैं वे त्रिवर्ण हैं और शेष शूद्र कहे गये हैं / / 74-463 // विदेह क्षेत्रमें मुक्तिके योग्य जातिसन्ततिका विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँपर मुक्तियोग्य जातिसन्ततिके योग्य नामकर्म और गोत्रकर्मसे युक्त जीवोंकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है / / 74-464 / / परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें चतुर्थ कालमें ही मुक्तियोग्य जातिसन्तति पाई जाती है। जिनागममें मनुष्योंमें वर्ण विभाग इसप्रकार बतलाया गया है / / 74-465|| -उत्तरपुराण लोकः ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रास्तस्मिन् भवो लौकिकः आचार इति सम्बन्धः / तदर्शनधाति / तस्मात्तन्मूढत्वं सर्वशक्त्या न कर्तव्यम् / ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इनकी लोक संज्ञा है और उसमें होनेवाले आचारको लौकिक प्राचार कहते हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध हैं / -मूलाचार अ० 5 श्लो० 56 टीका ... जिनः कल्पद्रुमापाये लोकानामाकुलात्मनाम् / . दिदेश षक्रियाः पृष्टो जीवनस्थितिकारिणीः // 18-26 // कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर जनताको आकुल देखकर ऋषभ जिनने * ( राज्यकालके समय ) जनताके पूछनेपर जीविकाके उपायस्वरूप षट्कर्मका उपदेश दिया // 18-26 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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