SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 360 वर्ण, जाति और धर्म ब्राह्मणोऽवाचि विप्रेण पवित्राचारधारिणा। विप्रायां शुद्धशीलायां जनिता नेदमुत्तरम् // 18-27 // न विप्राविप्रयोरस्ति सर्वदा शुद्धशीलता। कालेनादिना गोत्रे स्खलनं क न जायते // 18-28 // संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया / विद्यन्ते तात्त्विकाः यस्यां सा जातिमहती सताम् // 18-26 // दृष्टा योजनगन्धादिप्रसूतानां तपस्विनाम् / व्यासादीनां महापूजा तपसि क्रियतां मतिः // 18-30 // शीलवन्तो गताः स्वर्ग नीचजातिभवा अपि.। कुलीना नरकं प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः // 18-31 // गुणैः सम्पद्यते जातिगुणध्वंसविपद्यते / यतस्ततो बुधैः कार्यो गुणेष्वेवादरः परः 18-32 // जातिमात्रमदः कार्यो न नीचत्वप्रवेशकः / / उच्चत्वदायकः सद्भिः कार्यः शीलसमादरः 18-33 // जो प्राणी सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्यायसे रहित हैं वे केवल जातिमात्रसे धर्मको नहीं प्राप्त करते // 18-23 // आचारके भेदसे ही जातिभेद कल्पित किया गया है / तात्विक दृष्टिसे देखा जाय तो ब्राह्मण नामकी कोई नियत जाति नहीं है // 18-24 // ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि चारोंकी वास्तवमें एक मनुष्य जाति ही है। आचार मात्रसे ही ये विभाग किये जाते हैं // 18-25 // क्योंकि जिस प्रकार चावलोंको जातिमें मुझे कोदों उत्पन्न होते हुए नहीं दिखाई देते उसी प्रकार यदि इनमें सर्वथा भेद होता तो ब्राह्मण जातिमें क्षत्रिय किसी प्रकार भी उत्पन्न नहीं होना चाहिए // 18-26 // इसपर कोई ब्राह्मण कहता है कि तुम पवित्र आचारके धारकको तो ब्राह्मण कहते हो, परन्तु उससे शुद्ध शीलको धारण करनेवाली ब्राह्मणीकी कुक्षिसे उत्पन्न हुएको ब्राह्मण क्यों नहीं कहते हो / परन्तु उसका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण और ब्राह्मणी सर्वदा शीलसे ही रहें, अनादि
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy