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________________ 344 वर्ण, जाति और धर्म पादप्रचारैस्तनुवर्णकेशः सुखेन दुःखेन च शोणितेन / स्वग्मांसमेदोऽस्थिरसः समानाश्चतुःप्रभेदाश्च कथं भवन्ति // 8 // विद्याक्रियाचारुगुणैः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत्स विप्रः / ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्रह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति // 25-44 // व्यासो वशिष्ठः कमठश्च कण्ठः शक्त्युद्गमौ द्रोणपराशरौ च / आचारवन्तस्तपसाभियुक्ता ब्रह्मत्वमायुः प्रतिसम्पदाभिः // 25-44 // ब्राह्मण कुछ चन्द्रमाको किरणोंके समान शुभ्र वर्णवाले नहीं होते, क्षत्रिय कुछ किंशुकके पुष्पके समानं गौरवर्णवाले नहीं होते, वैश्य कुछ हरतालके समान रंगवाले नहीं होते और शूद्र, कुछ अङ्गारके समान कृष्णवर्णवाले नहीं होते // 7 // चलना फिरना, शरीरका रंग, केश, सुख-दुख, रक्त, त्वचा, मांस, मेदा, अस्थि और रस इन सब बातोंमें वे एक समान होते हैं, इसलिए मनुष्योंके ब्राह्मण आदि चार भेद नहीं हो सकते। ___ जो विद्या, क्रिया और गुणोंसे हीन है वह जातिमात्रसे ब्राह्मण नहीं हो सकता, किन्तु जो ज्ञान, शील और गुणोंसे युक्त है उसे ही ब्रह्मके जानकार पुरुष ब्राह्मण कहते हैं // 44 // व्यास, वशिष्ठ, कमठ, कण्ठ, शक्ति, उद्गम, द्रोण और पराशर ये सब प्राचार और तपरूप अपनी सम्पत्तिसे युक्त होकर ही ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए थे॥४४॥ -वराङ्गचरित चातुर्विध्यं च यजात्या तत्र युक्तमहेतुकम् / ज्ञानं देहविशेषस्य न च श्लोकाग्निसम्भवात् // 11-164 विना अन्य हेतुके केवल वेदवाक्य और अग्निके संस्कारसे देहविशेष का ज्ञान होता है ऐसा कहकर चार प्रकारकी जाति मानना उचित नहीं है // 11-164 // दृश्यते जातिभेदस्तु यत्र तत्रास्य सम्भवः / मनुष्यहस्तिवालेयगोवाजिप्रभृतौ यथा // 11-115 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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