________________ वर्ण, जाति और धर्म येऽप्युत्पद्य कुडक्कुले विधिवशाहीक्षोचिते स्वं गुणैः। विद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि पुनन्त्यन्वीरते तेऽपि तान् // 2-20 // विद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि बिद्यात्राजीवनाथ गीतादिशास्त्रं, शिल्पं कारुकम ताभ्यां विमुक्ता ततोऽन्या वृत्तिर्वार्ता कृष्यादिलक्षणो जीवनोपायो यत्र तस्मिन् / ___ जो पहले जैनकुलमें उत्पन्न होकर जिनधर्मके अभ्यासके माहात्म्यसे विना प्रयत्नके प्राप्त हुए गुणोंसे पुण्यवान् पुरुषोंके अग्रसर हो कर . स्फुरायमान होते हैं ऐसे पुरुष विरले हैं / किन्तु जो भाग्यवश विद्या और शिल्प कर्मसे रहित दीक्षा योग्य मिथ्यादृष्टि कुलमें उत्पन्न होकर भी अपने गुणोंसे प्रकाशमान होते हैं वे भी उनका अनुसरण करते हैं // 20 // गीतादिसे आजीविका करना विद्या है और बढ़ईगिरी आदिका कर्म शिल्प कहलाता है / इन दोनोंसे रहित जो अपनी आजीविका कृषि आदि कर्मसे करते है वे विद्या और शिल्पसे रहित आजीविका करनेवाले कहलाते हैं। -सागारधर्मामृत कुलं पूर्वपुरुषपरम्पराप्रभवो वंशः। पूर्व पुरुष परम्परासे उत्पन्न हुआ वंश कुल कहलाता है। -सागारधर्मामृत टीका 2-20 क्षत्रियाणां सुगोत्राणि व्यधापियत वेधसा / चत्वारि चतुरेणैव राजस्थितिसुसिद्धये // 2-163 // सुवागिच्वाकुराधस्तु द्वितीय कौरवो मतः। हरिवंशस्तृतीयस्तु चतुर्थो नाथनामभाक् 2-164 // चतुर आदि ब्रह्माने राज्योंकी परम्पराको व्यवस्थितरूपसे चलाने के लिए क्षत्रियों के उत्तम चार गोत्रोंका निर्माण किया // 2-163 / / प्रथम इक्ष्वाकु गोत्र, दूसरा कौरव गोत्र, तीसरा हरिवंश * और चौथा नाथगोत्र / / 2-164 / / -पाण्डवपुराण