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________________ 31% वर्ण, जाति और धर्म पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव कर्मभूमिज और अकर्मभूमिजके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। उनमेंसे अकर्मभूमिज उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बाँधते हैं / किन्तु-पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए जीव ही उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं, इस बातका ज्ञान कराने के लिए कर्मभूमिज पदका निर्देश किया है। जिस प्रकार भोगमूमिमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता उसी प्रकार देव और नारकियों तथा स्वयम्प्रभ पर्वतके बाह्य भागसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तकके इस कर्मभूमि सम्बन्धी क्षेत्रमें : उत्पन्न हुए तिर्यञ्चोंके भी उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निषेध प्राप्त होनेपर उसका निराकरण करनेके लिए 'अकमभूमिजके और कर्मभूमिप्रतिभागोत्पन्न जीवके' ऐसा कहा है। 'अकर्मभूमिजके' ऐसा कहनेपर उससे देव और नारकियोंका ग्रहण करना चाहिए। तथा 'कर्मभूमिप्रतिभागोत्पन्नके' ऐसा कहनेपर उससे स्वयम्प्रभ पर्वतके बाह्य भागमें उत्पन्न हुए पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंका ग्रहण करना चाहिए / 'संख्यात वर्षकी आयुवाले' ऐसा कहनेपर उससे ढाई द्वीप और दो समुद्रोंमें उत्पन्न हुए तथा कर्मभूमि प्रतिभागमें उत्पन्न हुए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिए / असंख्यात वर्षोंकी आयुवालेके' ऐसा कहने पर उससे देव और नारकियोंका ग्रहण करना चाहिए, एक समयं अधिक पूर्व कोटिकी आयुसे लेकर उपरिम आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्योंका ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि पूर्व सूत्रसे उनका निषेध कर आये हैं। -वेदनाकालविधान सूत्र 8 धवला टीका देवाणं उक्कस्साउअं पण्णारसकम्मभूमीसु चेव वज्झइ, जेरइयाणं उक्कस्साउअं पण्णारसकम्मभूमीसु कम्मभूमिपडिभागेसु च वज्झदि त्ति जाणावणटुं कम्मभूमिपडिभागस्स वा त्ति परूबिदं / देवोंकी उत्कृष्ट अायुका बन्ध पन्द्रह कर्मभूमियोंमें ही होता है तथा नारकियोंकी उत्कृष्ट अायुका बन्ध पन्द्रह कर्मभूमियोंमें और कर्मभूमि प्रति
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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