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________________ 264 वर्ण, जाति और धर्म इसी भवका मेरा पिता था, वसुदासने जिनदीक्षा ले ली। बकरेने भी जातिस्मरण द्वारा सब स्थिति जानकर श्रावकके बारह व्रत स्वीकार कर लिए। श्रावक धर्मको स्वीकार करनेवाला चण्डकर्मा चाण्डाल___उजयनीमें एक चण्डकर्मा नामका चाण्डाल रहता था / वह हिंसाकर्म से अपनी आजीविका करता था और उसे ही अपना कुलधर्म समझता था। एक बार उसकी परम वीतरागी मुनिसे भेट हो गई। मुनिके द्वारा अनेक युक्तियाँ और दृष्टान्त देकर यह समझाने पर कि जीव शरीरसे भिन्न है, चण्डकर्मा उपशमभावको प्राप्त हुआ। उसके यह निवेदन करने पर कि मुझे ऐसा व्रत दीजिए जिसे मैं गृहस्थ रहते हुए पालन कर सकूँ, मुनिने गृहस्थके बाहर व्रतों, पञ्च नमस्कार, सम्यक्त्व और पूजाका उपदेश दिया / उपदेश सुनकर पहले उसने अहिंसाव्रतकों छोड़ कर अन्य सब व्रत स्वीकार करनेको प्रार्थना की। उसने कहा कि हिंसा मेरा कुलधर्म है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ। किन्तु मुनिके द्वारा अहिंसाका महत्त्व बतलाने पर अन्तमें उसने पूर्ण श्रावकधर्मको स्वीकार कर लिया। अहिंसावती यमपाश चाण्डालके साथ राजकन्याका विवाह तथा आधे राज्यकी प्राप्तिवाराणसी नगरीमें एक यमपाश नामका चाण्डाल रहता था / चोरी आदि अपराध करनेवाले मनुष्योंको शूली पर चढ़ा कर वह अपनी आजीविका करता था। एक बार उसने मुनिके पास यह व्रत लिया कि मैं पूर्णिमाको जीववध नहीं करूँगा। प्रतिज्ञा लेकर वह ज्यों ही अपने घर आया कि इतने में राजाकी ओरसे उसे बुलावा आ गया। पतिके संकेतानुसार पहले तो उसकी भार्याने, यह कह कर कि वह दूसरे गाँव गया है, 1. बृहत्कथाकोश कथा 71 पृ० 163 से / 2. बृहत्कथाकोश कथा 73 पृ० 172 से।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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