________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 227 एक ओर जहाँ हरिवंशपुराणका संकलन हो रहा था उसी समय वीरसेन आचार्य षट्खण्डागम टीकाके निर्माणमें लगे हुए थे। संययमासंयम और संयमको कौन व्यक्ति धारण करता है इसकी चरता करते हुए वे लिखते हैं कि वह चारित्र दो प्रकारका है-देशचारित्र और सकल चारित्र / उनमेंसे देशचारित्रको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि दो प्रकारके होते हैं-प्रथम वे जो वेदकसम्यक्त्व के साथ संयमासंयमके अभिमुख होते हैं और दूसरे वे जो उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमके अभिमुख होते हैं / संयमको प्राप्त होनेवाले जीव भी इसी तरह दो प्रकारके होते हैं / ... कुछ उल्लेखोंको छोड़कर इसी तथ्यको वीरसेन स्वामीने एकाधिकबार दुहराया है। आगममें किस गुणस्थानसे जीव किस गुणस्थानको प्राप्त होता है इस बातका स्पष्ट निर्देश किया है। जब यह जीव मिथ्यात्वसे उपशमसम्यक्त्वके साथ देशचारित्र और सकलचारित्रको प्राप्त होता है तब इनकी प्राप्ति करणलब्धि पूर्वक ही होती है। सम्यग्दृष्टि जीवके द्वारा भी इन गुणोंको प्राप्त करते समय अधःकरण और अपूर्वकरणरूप परिणाम होते हैं। केवल जो जीव एक बार इन गुणोंको प्राप्त कर और पतितं होकर अतिशीघ्र उन्हें पुनः प्राप्त करता है उसके करणपरिणाम नहीं होते। इन गुणोंको प्राप्त करनेकी यह वास्तविक प्रक्रिया है। इसमें किसी प्रकारकी दीक्षाके लिए अवसर ही नहीं है। वह उपचार कथन है जो चरणानुयोगकी पद्धतिमें कहा गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि कोई व्यक्ति घर बैठे ही और वस्त्रादिका त्याग किये बिना ही संयमरूप परिणामोंको प्राप्त करनेका अधिकारी हो जायगा। अन्तरङ्ग मूर्छाके साथ बाह्य परिग्रहका त्याग तो होता ही है। चरणानुयोगकी जो भी सार्थकता है वह इसीमें है। पर चरणानुयोगकी पद्धतिसे चलनेवाला व्यक्ति संयमासंयमी और संघमी होता ही है ऐसा नहीं है। इसीसे चरणानुयोगकी पद्धतिको उपचार कथन कहा गया है। स्पष्ट है कि मोक्षमार्गकी पद्धतिमें वर्णाचारके लिए स्थान नहीं है / यही कारण है कि मूल आगमसाहित्यके