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________________ 200 ___ वर्ण, जाति और धर्म बनता है तो वह विद्या और शिल्पकर्म द्वारा अपनी आजीविका करता रहता है। ब्राह्मण स्वतन्त्र वर्ण न होकर क्षत्रियादि तीन वर्षों के आश्रयसे है / केवल व्रतोंको स्वीकार करने के कारण यह पद योजित किया गया है, अतः जैन मान्यतानुसार ब्राह्मणवर्णका क्षत्रियादि तीन वर्षों के कर्मको छोड़कर अन्य स्वतन्त्र कोई कर्म नहीं हो सकता यही निश्चित होता है। भगवान् ऋषभदेवने आजीविकाके साधनरूप कर्म ही केवल छह बतलाये हैं / इससे भी उक्त तथ्यकी पुष्टि होती है। एक प्रश्न और उसका समाधान- , ___ महापुराणमें ब्राह्मण वर्णको उत्पत्तिके प्रसंगसे जो कथा दी गई है उसमें बतलाया गया है कि भरत महाराजने सब राजाओंके पास यह खबर भेजी कि आप लोग अलग-अलग अपने-अपने सदाचारी इष्ट अनुजीवियोंके साथ हमारे यहाँ होनेवाले उत्सवमें सम्मिलित होने के लिए आमन्त्रित किये जाते हैं / इस परसे बहुतसे विद्वान् यह अर्थ फलित करते हैं कि भरत महराजने केवल सब राजाओं और उनके सगे सम्बन्धियोंको ही आमन्त्रित किया था, शूद्रोंको नंहीं / किन्तु उनका ऐसा सोचना भ्रमपूर्ण है, क्योंकि अनुजीवी शब्दका अर्थ सगे सम्बन्धी न होकर आश्रित जन होता है / इसलिए मालूम पड़ता है कि भरत महराजने केवल राजाओं और उनके सगे सम्बन्धियोंको ही आमन्त्रित नहीं किया होगा। किन्तु राजाओंके आश्रयसे रहनेवाले जितने भी सदाचारी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे उन सबको आमन्त्रित किया होगा। महापुराणके पूर्व कालवर्ती पद्मपुराणमें बतलाया है कि मुनिजन अपने शरीरमें ही निस्पृह होते हैं, वे उद्दिष्ट आहारको भी ग्रहण नहीं करते यह जान कर भरत महराजने आदर सत्कार करने के अभिप्रायसे सम्यग्दृष्टि गृहस्थोंको आमन्त्रित किया / हरिवंश पुराणमें भी लगभग यह बात दुहराई गई है / इससे भी विदित होता है कि भरत महाराजने केवल सदाचारी क्षत्रियों या क्षत्रियों और वैश्योंको
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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