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________________ धर्मकी महत्ता भारतीय परम्परामें जैनधर्म अपनी उदारता और व्यापकताके कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके अनुयायी संख्या में अल्प होने पर भी विश्वके प्रधान धर्मों में इसकी परिगणना की जाती है। भारतीय जनजीवनको अहिंसक बनानेमें और धर्मके नामपर होनेवाली हिंसाका उन्मूलन करनेमें इसका प्रधान हाथ है। प्राणीमात्रकी बुद्धि अन्धविश्वासों और अपने अज्ञानके कारण कुण्ठित हो रही है / इसने उनसे ऊपर उठकर उसे आगे बढ़ाने में सदा सहायता की है / विश्वमें जितने धर्म हैं उनकी उत्पत्ति प्रायः अवतारी पुरुषोंके आश्रयसे मानी गई है। किन्तु जैन और बौद्ध ये दो धर्म इसके अपवाद हैं। साधारणतः लोकमें जो कार्य होता है उसकी उत्पत्ति अवश्य होती है यह सामान्य सिद्धान्त है / जैनधर्म भी एक कार्य है, अतः इस युगमें कल्पकालके अनुसार इसका प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेवसे माना जाता है / पर कैवल्य लाभ करनेके पूर्व वे भी उन कमजोरियोंसे अाविष्ट थे जो साधारणतः अन्य व्यक्तियोंमें दृष्टिगोचर होती हैं। प्रकृतिका यह नियम है कि सभी प्राणी अपने जन्मक्षणसे लेकर निरन्तर आगे बढ़नेकी चेष्टा करते हैं। किन्तु जो आगे बढ़नेके समीचीन मार्गका अनुसन्धानकर उसपर चलने लगते हैं वे आगे बढ़ जाते हैं और शेष यों ही कालयापन कर कालके गालमें समा जाते हैं। ऐसी अवस्थामें हम धर्मके महत्त्वको हृदयङ्गम करें और उसपर आरूढ़ होकर आत्मसंशोधनमें लगें यह उचित ही है। . . .. साधारणतः हम देखते हैं कि संसारके अधिकांश मनुष्य किसी-न किसी धर्मके अनुयायी हैं / भारतीय जनजीवनमें इसकी प्रतिष्ठा और भी
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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