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________________ 174 वर्ण, जाति और धर्म वर्णमीमांसा षट्कर्म व्यवस्था और तीन वर्ण . ... साधारणतः आजीविका और वर्ण ये पर्यायवाचीनाम हैं, क्योंकि वर्णों की उत्पत्तिका आधार ही आजीविका है। जैन पुराणोंमें बतलाया है कि कृतयुग के प्रारम्भमें कल्पवृक्षोंका अभाव होनेपर प्रजा तुधासे पीड़ित होकर भगवान् ऋषभदेवके पिता नाभिराजके पास गई / प्रजाके दुखको सुनकर नाभिराज ने यह कह कर कि इस संकटसे प्रजाका उद्धार करने भगवान् ऋषभदेव विशेषरूपसे सहायक हो सकते हैं, उसे उनके पास भेज दिया। तुधासे आर्त प्रजाके उनके सामने उपस्थित होनेपर उन्होंने उसे असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मोंका उपदेश दिया। इससे तीन वर्णों की उत्पत्ति हुई। जो असि विद्याको सीखकर देशकी रक्षा करते हुए उस द्वारा अपनी आजीविका करने लगे 'वे क्षत्रिय कहलाये / जो कृषिकर्म और वाणिज्यकर्मको स्वीकार कर उनके आश्रयसे अपनी आजीविका करने लगे वे वैश्य कहलाये और जो विद्या और शिल्पकर्मका आश्रय कर उनके द्वारा अपनी आजीविका करने लगे वे शूद्र कहलाये / मषिकर्म किस वर्णका मुख्य कर्म था इसका स्पष्ट निर्देश हमें कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ। यह सर्वसाधारण कर्म रहा हो यह सम्भव है। कृष्यादि कर्मों में ऋषभनाथ जिनने प्रजाको लगाया इस मतका उल्लेख सर्व प्रथम स्वामी समन्तभद्रने किया है। इसके बाद अधिकतर पुराणकारोंने इस कथनकी पुष्टि की है / साथ ही वे स्पष्ट शब्दोंमें यह भी घोषित करते हैं कि ऋषभ जिनने केवल छह कर्मोंका ही उपदेश नहीं दिया। किन्तु उन्होंने उन कर्मों के आधारसे तीन वर्षों की स्थापना भी की। मात्र हरिवंशपुराण, वराङ्गचरित्र और यशस्तिलकचम्पू इसके अपवाद हैं। वाराङ्गचरितमें बतलाया है कि एक दिन सभामें बैठे हुए वराङ्ग सम्राट्ने मलिनचित्तवाले सभासदों के मनोविनोदके लिए जन्मसे वर्ण व्यवस्थाका निषेध करते
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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