________________ 160 वर्ण, जाति और धर्म हैं। तब भी वे जाति (जन्मसे वर्ण व्यवस्था ) को स्वीकार कर उसका ऐसा विलक्षण लक्षण करते हैं जिसको पढ़कर बुद्धि चकरा जाती है। वे एक ओर मनुष्योंमें जातिभेदका खण्डन भी करते हैं और दूसरी ओर मोक्षमार्गकी दृष्टि से उसे प्रश्रय भी देते हैं यही आश्चर्यकी बात है। वे कहते हैं कि जिनमें जाति तथा गोत्र आदि कर्म शुक्लध्यानके कारण हैं वे तीन वर्ण हैं और बाकीके शूद्र हैं। अपने इस कथनकी पुष्टि करते हुए वे पुनः कहते हैं कि विदेह क्षेत्रमें मोक्ष जानेके योग्य जातिका इसलिए विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ पर उस जातिमें कारणभूत नामकर्म और गोत्रकर्मसे युक्त जीवोंकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है / परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें चतुर्थ कालमें ही उस जातिकी परम्परा चलती है, अन्य कालोंमें नहीं। वे स्वीकार करते हैं कि जिनागममें मनुष्योंके आश्रयसे वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है (पर्व 74 श्लो० 461 से)। ____ रत्नकरण्डमें तीन मूढताओंके लोकमूढता, देवमूढता और पाषण्डिमूढता ये तीन नाम आये हैं। किन्तु उनके स्थानमें आचार्य गुणभद्र पाषण्डिमूढता, देवमूढता, तीर्थमूढता जातिमूढता और लोकमूढता इन पाँच मूढताओंको स्वीकार करते हैं। तीन तो वही हैं जिन्हें रत्नकरण्डमें स्वीकार किया गया है। इन्होंने उनमें.. तीर्थमूढता और जातिमूढता इन दो अन्य मूढताओंको सम्मिलित कर उनकी संख्या पाँच कर दी है। यद्यपि इन दो मूढताओंका समावेश लोकमूढतामें हो जाता है, इसलिए कुल मूढताएँ तीन ही हैं इस बातका निर्देश सभी आचार्योंने किया है। फिर भी वे इन दोको स्वतन्त्ररूपसे स्वीकार कर उनका निषेध करना आवश्यक मानते हैं। यहाँ हमें तीर्थमूढताको स्वतन्त्ररूपसे क्यों स्वीकार किया गया इस विषयमें विशेष कुछ नहीं कहना है, क्योंकि उसका यहाँ प्रकरण नहीं है / हाँ, जातिभूढताको स्वतन्त्ररूपसे स्वीकार कर उसका निषेध करने और जाति (जन्मसे वर्ण) का स्वतन्त्र लक्षण करनेके पीछे आचार्य गुणभद्रका क्या हेतु है यह अवश्य ही विचारणीय है।